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दो बहनें

ऊर्मि ने अभी आलमारी में चाभी लगाई ही थी कि शशांक ने आकर कहा, "वह सब बाद में होगा, बहुत समय पड़ा है, खेल ख़त्म कर आओ।"

"लेकिन दीदी"---

"अच्छा, दीदी से छुट्टी माँगे लाता हूँ।"

दीदी ने छुट्टी दे दी और उसके साथ ही बड़ी-सी एक दीर्घ निश्वास भी ली।

दासी को बुलाकर कहा, "ज़रा रख तो दे मेरे सिर पर ठंडे जल की पट्टी।'

यद्यपि बहुत दिनों के बाद एकाएक छूट पाकर ऊर्मि अपने-आपको भूल-सी गई थी तथापि किसी-किसी दिन उसे अपने जीवन की कठोर ज़िम्मेवारी याद आ जाती। वह तो स्वाधीन नहीं, वह अपने व्रत के साथ बँधी हुई है,। उसी व्रत के साथ मिलकर जिस बंधन ने उसे व्यक्ति-विशेष के साथ बाँध रखा है, उसका अनुशासन तो सिर पर मौजूद है ही। उसी आदमी ने तो उसके दैनिक जीवन की तफ़सील ठीक कर दो है। ऊर्मि किसी प्रकार यह अस्वीकार नहीं कर पाती कि उसके जीवन पर उस आदमी का अधिकार हमेशा के लिये हो

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