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दो बहनें

गया है। जब नीरद पास था तब स्वीकार करना आसान था, मन में ज़ोर रहा करता था। इस समय उसकी इच्छा तो एकदम विमुख हो गई है लेकिन कर्तव्य-बुद्धि पीछे पड़ी हुई है। कर्तव्य-बुद्धि के इस अत्याचार से मन और भी बिगड़ उठता है। अपने ही किए हुए अपराध को क्षमा करना कठिन हो गया इसीलिये अपराध प्रोत्साहन पाने लगा। पीड़ा पर अफ़ीम की प्रलेप देने के लिये यह शशांक के साथ खेल-कूद और आमोद-प्रमोद में अपने को भुला रखने की चेष्टा करती। कहती, इस समय जितने थोड़े-से दिनों के लिये छुट्टी मिली है उतने समय तक यह सब बातें पड़ी रहें। फिर अचानक किसी-किसी दिन ज़ोर से सिर हिलाकर ट्रंक में से बही-खाता निकालती और उनपर मग़ज़ मारने बैठ जाती। अब शशांक की बारी आती। वह किताबों को खींचकर फिर से बक्स में भर देता और उसी बक्स को दबाकर ऊपर बैठ जाता। ऊर्मि कहती, "जीजाजी, यह तुम्हारा बड़ा अन्याय है, मेरा समय मत बरबाद करो।"

शशांक कहता, "तुम्हारा समय बरबाद करने में मेरा भी समय बरबाद होता है। इसलिये जमा-ख़र्च बराबर हुआ।"

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