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दो बहनें

इसके बाद थोड़ी देर खींचतान करके अंत में ऊर्मि हार मान लेती। यह उसके लिये बहुत आपत्तिजनक है ऐसा भी नहीं लगता। इस प्रकार बाधा पाकर भी कर्तव्यबुद्धि की मार पाँच-छ: दिन तक लगातार जारी रहती, बाद में उसका ज़ोर कम हो आता। ऊपर से कहती, "मुझ कमज़ोर न समझना जीजाजी, मेरे मन में प्रतिज्ञा मज़बूत ही बनी हुई है।"

"यानी?"

"यानी यहाँ से डिग्री लेकर यूरोप में डाक्टरी सीखने जाऊँगी।"

"फिर?"

"फिर अस्पताल स्थापित करके उसकी जिम्मेवारी सँभालूगी।"

"और किसकी ज़िम्मेवारी सँभालोगी? वह जो नारद मुखर्जी नाम का एक इनसफ़रेबुल---"

शशांक का मुँह बंद करके ऊर्मि कहती, "चुप रहो। यदि यह सब बातें कहोगे तो तुम्हारे साथ बिल्कुल तकरार हो जायगी।"

अपने को ऊर्मि ख़ूब कठिन करके कहती, मुझे सत्य बनना होगा, सत्य बनना होगा। --नीरद के साथ उसका

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