पृष्ठ:दो सौ बावन वैष्णवन की वार्ता.djvu/१०

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॥ श्रीहरि ॥

  • श्रीकृष्णाय नम * श्रीगोपीजनवल्लभाय नम *

दो सौ बावन वैष्णवन की वार्ता

(क्रमश -२) अव श्रीगुसांईजी के सेधक एक गुजर के बेटा की बहू, मान्योर में रहती, जाकी भैसि श्रीगोवईननाथजी आप मिलाइ दिये, तिनकी पार्ता को भाघ फहत ई- भावप्रकाश-ये तामस भक्त हैं । लीला में इनको नाम 'पग्मेसुरी' है। सो पहिले ये द्वारिका लीला में 'विमला' की सखी ही। टिमला तें प्रगटी हैं। सो विमला श्रोरुक्मिनीजी की अंतरंग सखी हैं । तिनके ये भावरूप हैं । सो एक समै द्वारिकाजी में श्रीठाकुरजी श्रीरुक्मिनीजी सों ब्रजलीला की बातें कहत हे । ता समै ‘परमेसुरी' कछ कार्यार्थ तहां आई ! सो इन दृरि ते सत्र चात श्रीठाकुरजी के मुखकी सुनी । तब याके मन में यह आई, जो-हों ब्रजलीला को अनुभव करों ऐसो भाग्य मेरो कब होइगो ? सो इनको घोहोत आरति भई । तब सब खानपान र छुटयो । चित में रात्रि-दिन खेद रहे । कडू सुहाइ नाहीं । काढू कार्य में मन लागे नाहीं । सो श्रीठाकुरजी तो आप अंतर्यामी हैं। तातें इनके मन फी जानी । तब श्रीठाकुरजी परमेसुरी को बुलाइ. आजा किये, जो - तू ऐसो खेद क्यों करति है ? श्रीयमुनाजी को भजन करि । काहेते, जो - श्रीयमुनाजी ब्रज- लीला की अधिष्ठात्री हैं । बजलीला को सौभाग्य तो इनही की कृपा तें प्राप्त होन है । तातें तू उन को भजन करि । तेरो मनोग्य सिद्ध होइगो । या प्रकार श्रीठाकुरजी याकों वर दे के श्रीरुक्मिनीजी के पास पधारे। ता पार्छ पग्मेसुरी विरह ताप करि के श्रीयमुनाजी को भजन करन लागी । सो कहक दिन में श्रीयमुनाजी प्रसन्न व्हे याको दरसन दिये। और कहें, जो - तृ वर मांगि: