पृष्ठ:दो सौ बावन वैष्णवन की वार्ता.djvu/१०३

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९२ दोसौ बावन वैष्णवन की वार्ता उहां मंडप रचना भई है । और गंधर्व गान करत हैं। और ब्रजभक्त अनेक भांति सा गान करत हैं। सो या भांति सों हमारे श्रीठाकुरजी सदैव लीला करत हैं। सो नित्य प्रति अहर्निस यही वात करत उन दोउ जनें स्त्री-पुरुष को प्रातःकाल होइ जाँइ । तब ये वात करत करत हास्य करत में एक दिन पुरुषनें कह्यो, जो-तुम्हारे श्रीठाकुरजी तो महा व्यभिचारी हैं। सौ सदैव स्त्रीन को साथ ले रमन करत हैं। तव स्त्रीने अपने पुरुष सों कह्यो, जो-तुम्हारे श्रीरघुनाथजी तो घर में निर्वल हैं । सो एक श्रीजानकीजी को राखि सके नाहीं। या प्रकार दोनो झगरन लागे। सो दोउन को आरति भई । तव श्रीठाकुरजी ताही समै परम दयाल भक्त की आरति सहि सके नाहीं । तातें आप मध्य में प्रगट होई झगरो चुकायो । पाछे कही, जो- मैं प्रसन्न भयो हूं, तातें तुम कछु मांगो। तव इन दोउ जनेंन कही, जो- महाराजाधिराज ! हम तो यही मांगत हैं, जो-तुम हम ऊपर प्रसन्न भए हो तो हमारो निर्वाह सदैव याही बात करत होंई । जातें आप के दरसन नित्य होई। तब श्रीठाकुरजी तो इन कौ यह वचन सुनि के खरेई प्रसन्न भए । तब इन दोउ जनेन को जन्म यही बात करत गयो । परि इनकों कछू संसार की स्फूर्ति न भई । संसार को जान्यो नाहीं, जो - यह कहा है ? -या वार्ता में यह संदेह है, जो - स्त्री-पुरुष दोऊ ठाकुर की निंदा किये । दोऊ स्वरूपन में भेद-बुद्धि किये। तोऊ ठाकुर आप प्रगट व्है दरसन दिये, ताकौ कारन कहा ? तहां कहत हैं, जो-भक्तिमार्ग में कोऊ कैसे हू प्रकार सों अनन्य व्है रहत हैं तिन पर ठाकुर या भांति कृपा करत हैं । काहेते, जो- अनन्यता करि भक्त कों तन्मयता होत हैं । सो अनन्यता ऐसो पदार्थ है। और भक्तिमार्ग में लीला-भेद सों स्वरूप-भेद हैं। तातें भक्त हैं सो जा लीला की भावप्रकाश-