पृष्ठ:दो सौ बावन वैष्णवन की वार्ता.djvu/११४

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स्त्री-पुरुष क्षत्री, जो हीरान की धरती पहचानते १०३ लेई । और वह पति पूछे, जो-तेने अपने लिये कहा रायो है ? तव वह कहे, जो-मैं अपने लिये महाप्रसाद राख्यो है । तुम्हारे पीछे लेउंगी । तब वह पति चुप होइ रहे । ऐसें करत दिन दोइ वीते। सो वा स्त्री की देह कृप होइ गई। तब पति ने विचारयो, जो- यह कछ खाँत हे नाहीं। तब तीसरे दिन वा स्त्री ने पति के आगे पातरि धरी । तव इन पूछी. जो तेरे लिये कहा है ? तव स्त्रीने कह्यो, जो-मैं अपने लिये उहां धरि राख्यो है। तुम लेउगे ता पाछे मैं लेउंगी । तब पुरुप ने जान्यो, जो - यह नाही खाँत है । तातें वा पुरुप ने आधो महाप्रसाद लियो । पाठे पुरुपने स्त्री सों कही. जो- अब मैं परदेस जाँड के कछ कमाय ल्याऊं। तव स्त्रीने कह्यो. जो-तुम काहेको जाँत हो ? तुम मेरी चिंता मति करो । काम तो चल्योई जात है । तब पुरुषने कही, जो - तू धन्य है । जो- आजके समे में ऐसो धर्म राख्यो है । और तृ श्रीठाकुरजी की सेवा भली भांति सों करियो । और त आछी भांति रहियो। मैं वेगि ही कछुक दिन में आऊंगो । ऐसे कहि के वह पुरुष चल्यो । सो जहां हीरान की खाँनि हती तहां गयो। तहां एक व्यापारी ने कह्यो, जो तुम कहां ते आए हो? कौन हो? कौन काम करत हो? तब इन कह्यो.जो-मैं हीरान की धरती जानत हूं। तब उन कह्यो. जौ - तुम बैठो। पाठे व्यौपारीन कह्यो. जो- तुम धरती जानत हो तो में मोल लेऊ । सो तुम कहो । (और) जो- कछ माल निकमेगो तो तुमह को देहिंगे। नव इन कह्यो. जो - मेरे पास तो कछ द्रव्य नाहीं है। जो-कदाचित हीरा न निकले तो हाकिम को कहा देउंगो ? तब उन व्या-