पृष्ठ:दो सौ बावन वैष्णवन की वार्ता.djvu/१५४

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एक ब्राह्मनो, उपरावारी १४१ सामग्री सिद्ध करि कै मंगला ते राजभोग तांई पहोंचे । पाठे श्रीगुसांईजी श्रीनवनीतप्रियजी को अनोसर कराय के अपनी बैठक में पधारे। तव परचारगनी को बुलाय कै ब्रजवासी को आज्ञा किये, जो-या ब्राह्मनी को पार उतारि आवो। तव वा ब्राह्मनीने कही, जो-राज ! मेरो अपराध कहा है ? तव श्रीगुसांईजी कहे, जो-काल्हि दारि के वासन में कारोदाग रहि गयो हतो। सो वासन आछी भांति क्यों नाहीं मांजे? तव उन कयो, जो अनजाने कारो दाग रहि गयो होइगो । ता वात कों मैं कहा करों ? तव ऐसें वचन सुनि कै श्रीगुसांईजी वा परचारगनी के ऊपर वोहोत रिस कीनी। तव वा ब्रजवासी को आज्ञा किये, जो- या ब्राह्मनी कों अड़ेल के घाट पर अव ही नाव में बैठार के पार उतारि आवो । भावप्रकाश-यामें यह जताए, जो - वैष्णवन को गुम्न के सन्मुख दीनता सों बोलनो, अपराध भय मानि के । तव वह ब्रजवासी वा ब्राह्मनी को अड़ेल के घाट पर नाव में वैठारि कै पार उतारि आयो । तऊ वा ब्राह्मनी को श्रीगुसांईजी की ऊपर नेक हू दोप बुद्धि न आई। मन में कह्यो, जो-प्रभू हैं, फेरि कृपा करि के बुलावेंगे। भावप्रकाश-काहेते. जो - प्रभु अपने जीव को सर्वथा छोरत नाहीं । फेरि मन में विचारी, जो- अब मैं निर्वाह कैसे करों ? तव वा ब्राह्मनी ने घाट के ऊपर एक छानि छवाय लीनी । और घाट ऊपर वेल गाँइ आवें सो गोवर वोहोत होई । ताके ऊपरा थापें । और घाट पै आए गए काहू भले मनुष्य सों चून मांगि लेई । तामें निर्वाह करे । और वा झोंपरी मे परी रहे। अहर्निस श्रीगुसांईजी के चरन कमल को स्मरन करे । सो कछुक