पृष्ठ:दो सौ बावन वैष्णवन की वार्ता.djvu/१७०

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एक चोर, दिल्ली को १५३ सो सवन ने जान्यो, जो - कछ् राजा के काम को आयो होयगो। सो सवन ने जान दियो। पाठें वह चोर अपने ठिकाने जाँइ के वंटा धरि के सोयो । पाछे सबेरो भयो तव राजा के यहां चोरी को हल्ला भयो । सो चोर को ढूंढन को मनुष्य गए। सो दीवान हू साथ गयो। पाछे दिन घरी चारि चढयो तव उठिकै वह चोर दांतिन करत हतो। तव उहां ही दीवान चोर की तलास करत हतो । सो वाही को देख्यो। तव पूछी, जो-तू या समै दांतिन क्यों करत है ? तब वाने कह्यो, जो-मैं राजा के घर चोरी करिवे गयो हतो। सो वंटा ल्यायो । सो घर में धरि कै सोयो। सो अव उठयो हूं। तव दीवान ने जाँय कै राजा सों कही, जो- एक चोर तलास भयो है । तव राजाने कही जो- मेरे पास ल्याओ। तव दीवान वा चोर को राजा के पास ल्याए । तब राजाने पूछी, जो- तुमने चोरी कैसे करी ? तव वा चोर ने कह्यो, जो - मैं ड्योढ़ी पैं पूछत पूछत तुम्हारे पास आयो। सो गहना, बंटा को लै कै ड्योढ़ी पै कहत कहत मेरे ठिकाने गयो । तव राजाने कही, जो-गहना को बंटा ल्याऊ। तब वंटा ल्याइ के राजा को दिखायो । तव राजा ने कही, जो- ऐसो आदमी साँचो बोले सो कहां मिले ? पाछे दीवान सों कही, जो-यह कुलकुलां दीवान है । याके पास काम कर्ता तू है। तव सों वह चोर दीवानगीरी करन लाग्यो। पाठे केतक दिन में श्रीगुसांईजी उहां पधारे। सो यह दीवान सन्मुख गयो । तव मनुष्य ने कही, जो -कोई राजा आवत है । तव श्रीगुसांईजी कहे, जो-दीवान आवत है । पाठे वाने जाय के श्रीगुसांईजी को साष्टांग दंडवत् करी और कही, जो - मैं २०