पृष्ठ:दो सौ बावन वैष्णवन की वार्ता.djvu/१७३

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१५६ दोसौ बावन वैष्णवन की वार्ता 'सारंग' राग में एक पद गायो । सो पद- राग : सारंग राग सारग 6 श्रीवल्लभनंदन रूप अनूप स्वरूप को नहीं जाई । प्रगट परमानंद गोकुल वसत हैं सब जगत के सुखदाई । भक्ति मुक्ति देत सबन को कृपा प्रेम वरखत अधिकाई । सुखमय सुखरूप सुखद एक रसना कहांलों वरनौं गोविंद' वलि२ जाई। ता पाछे दूसरो पद गायो- सुनिरी सखी दुपहरी की विरियां वैठि झरोखन पोवति हार। ओंचका आय गये नंदनंदन मोतन कांकरी चितये डार । हो सकुच मुख मोरि ठाढ़ी भई गुरुजन लाज विचार । 'गोविंद' प्रभु पिय रसिक सिरोमनि सेन वताई भुजा पसार । सो ये पद सुनत ही तानसेन चकित होइ रहे । पाछे दोऊ हाथ जोरि श्रीगुसांईजी सों विनती किये, जो-महाराज ! इनके आगे मेरो गानो ऐसो है, जैसें मखमल के आगें टाट होत हैं। ता पाछे तानसेन गोविंदस्वामी के निकट जाँइ विनती किये, जो - तुम मोकों कृपा करि कछु गान सिखाओ। तब गोविंदस्वामी कह्यो, जो - हम श्रीगुसांईजी के सेवक बिना काहू सों संभाषन हू करत नाहीं। तब तानसेन श्रीगुसांईजी सों बिनती किये, जो - महाराज ! कृपा करि मोकों सेवक कीजिए । तब श्रीगुसांईजी तानसेन को नाम सुनाए । पाठे तानसेन ने श्रीगुसांईजी को एक सहस्र मुद्रा भेंट करी । और विनती कीनी, जो- महाराज ! आप गोविंदस्वामी सों आज्ञा करें, जो-मोकों ये गान विद्या सिखावे । तब श्रीगुसांईजी