पृष्ठ:दो सौ बावन वैष्णवन की वार्ता.djvu/१८६

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जनार्दनदास क्षत्री, आगरे के - १६९ विंद की सेवा में रखिये। तव श्रीगुसांईजी आपु अपनी खवासी में राखे । सोजनार्दनदास श्रीगुसांईजी की सेवा करिकै वोहोत प्रसन्न भए । तव श्रीगुसांईजी आप श्रीमुख तें कहते, जो- जनार्दनदास चोपडा वड़े कृपापात्र भगवदीय हैं । पाछे जना- देनदासने श्रीगुसांईजी सों विनती कीनी, जो-महाराजाधिराज मोकों सेवा पधराइए । तव श्रीगुसांईजी आपु जनार्दनदास के ऊपर दया करि कै प्रसन्न होंइ कै तिनके माथे पर श्रीवाल- मुकुंदजी की सेवा पधराई। आपु पंचामृत सों स्नान करवाए । और सब प्रनालिका सिखाए। पाछे वह आगरे आइ के अपने घर में जनार्दनदास सेवा करन लागे । ता पानें श्रीगुसांईजी आगरे पधारे तब स्त्री को नाम-निवेदन करवाए। सो अह- निस चित्त सेवा के विषे रहे । उत्तम तें उत्तम सामग्री होइ सोई आरोगावें। भांति भांति के वस्त्र आभूषन श्रीठाकुरजो आपु कों अंगीकार करावते । ऐसें करत बोहोत दिन भए । तव श्रीठाकुर- जी आपु वा जनार्दनदास विनु एक क्षन रहते नाहीं ।जो चहिए सोई मांगि लेते । वातें करते । सो जनार्दनदास चोपड़ा कछु कामकाज को कहूं जाते तव श्रीवालमुकुंदजी कहते, जो-मैं तेरे संग आऊंगो । तू कहां जात है ? तव जनार्दनदास श्री- बालमुकुंदजी सों कहते, जो - महाराजाधिराज ! मैं अव ही आवत हों। परि श्रीठाकुरजी आप मानते नाहीं । सो जना- र्दनदास विना वालमुकुंदजी सों रह्यो जाँइ नाहीं । और कहते, जो- जनार्दनदास ! मैं तेरे संग आउंगो। ऐसो श्रीवालमुकुंदजी आप सों स्नेह हतो। सो जनार्दनदास श्रीवालमुकुंदजी आप सों कहते, जो-महाराजाधिराज ! मैं अबही बड़ी बेगि आवत २२