पृष्ठ:दो सौ बावन वैष्णवन की वार्ता.djvu/२०८

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राजा आसकरन, नरवरगद के १९३ आसकरन श्रीगुसांईजी को दंडवत् करि कै विनती कीनी । जो - महाराजाधिराज ! मैं कछु जानत नाहीं । मो पर कृपा सदा राखोगे । यह दीन वचन सुनि कै श्रीगुसांईजी को हृदय भरि आयो । तव श्रीगुसांईजी आसकरन सों कहे. तुम सुखेन घर जाँइ कै सेवा करो। तुम को राजकाज लौकिक बाधा न होइगी। तव आसकरन दंडवत् करि के अत्यंत भाव-प्रीति सहित विदा होई तानसेन कों संग ले के अपने घर आए । तव आसकरन ने तानसेन की बोहोत बड़ाई करी । जो- तुम्हारी कृपा तें मैं पुरुषोत्तम पाए । अब तुम आज्ञा करो सोई मैं करों। गाम धरती लेहु, मेरे पास रहो । तव तानसेन ने कही, जो-तुम्हारे ऊपर कृपा भई । और मेरे ऊपर इतनी नाहीं भई । सो मेरो अधिकार नाही, मेरो भाग्य नाहीं। तो मैं कहा करो ? अव तो मैं घर जाउंगो । तव आसकरन ने एक आछौ घोड़ा सुनहरी साज को अपने चढ़िवे कौ और हजार दोइ रुपैया तानसेन को वोहोत विनती करि के दिये । सो तानसेनं ले के अपने घर आए । पाछे आसकरन आछो सुंदर मंदिर सिद्ध कराय, राज-सेवा परम प्रीति सोंक रन लागे। सो तनुजा वित्तजा दोउ प्रकार सों भली भांति सों सेवा करन लागे। राजकाज दीवान के हवाले कर दियो। सो वे आसकरन ऐसें भगवदीय भए । चार्ता प्रसंग-२ सो आसकरन भगवद् सेवा वोहोत प्रीति सों करते । सो श्रीठाकुरजी कछू दिन में सानुभावता जनावन लागे । तव आसकरन सेवा समय तो स्वरूपानंद की अनुभव करते । तब २५