पृष्ठ:दो सौ बावन वैष्णवन की वार्ता.djvu/२११

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दोसौ बावन वैष्णवन की वार्ता चढ-यो । परंतु मन मानसी सेवा में लाग्यो है । मंगला तें ले सगरो सिंगार, ग्वाल तांई भावना करि राजभोग धरन लागे। सो सगरो राजभोग धरि चुके । पाछे कढ़ी को डबरा हाथ में ले धरन लागे । ताही समय एक खाड में घोड़ा कूद गयो। सो आसकरन के हाथ सों कढ़ी को डवरा छूटयो। सो सगरो वागा, घोड़ा ऊपर कढ़ी कढ़ी होइ गई । तब दीवान ने कही, यह कहा? तव आसकरन ने कही, कछु नाहीं । मेरे पास कढ़ी हती। घर ते ल्यायो हतो, सो गिरी। भावप्रकाश-या यह जतायो, जो - भगवद्धर्म गोप्य राखनो । काहू के आगें प्रगट न करनो। पाछे संभार कै मन कों, फेर आसकरन ने दूसरो डबरा सिद्ध करि राजभोग धरयो । समय भये भोग सराय आरति करि अनोसर करि पाछे नेत्र खोलि के दीवान की ओर देखि कै सगरी फौज लै कै उह राजा के ऊपर चढयो । सो उह राजा कों महाकाल स्वरूप सेना आसकरन की दीसी । सो डरप्यो। कह्यो यहां मैं न जीतोंगो। पाठे वादर होइ आये। सो उह दक्षिन के राजा की फौज में बड़े बड़े पत्थर की सिला जैसें ओरें बरसे। और आसकरन की फौज में नेन्ही नेन्ही बुंद आई। सो उह राजा की फौज कछू मारी गई, कछु ओरान तें मरी । सो उह सजा भाजि कै अपने देस को गयो। अपने मन में कह्यो, जो- आसकरन के ऊपर आज पाछे कबहू उह गाम पर न जानो। पाछे आसकरन रात्रि को घर आए । सो एक दिन श्रीठाकुरजी की सेवा अपनी देह सों आसकरन ने नाहीं करी। ताकौ महा दुःख भयो। पाछे फेरि सेवा भली भांति सों करन लागे ।