पृष्ठ:दो सौ बावन वैष्णवन की वार्ता.djvu/२१९

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२०२ दोसौ बावन वैष्णवन की वार्ता पाछे आसकरन 'जसोदा घाट' तीसरे प्रहर न्हायवे को आए । न्हाय कै श्रीगुसांईजी के दरसन करिवे को आसकरन आए। सो उत्थापन कौ समय भयो हतो। श्रीगुसांईजी गादी तकिया पै विराजे हते । न्हाइवे की तैयारी हती। ताही समय आस- करन आय कै दंडवत् किये । तव श्रीगुसांईजी आसकरन कों देखि कै पूछे, जा - आसकरन ! आज तुम प्रातःकाल दरसन कों नाहीं आये, सो या समय आये, सो क्यों ? तव आसकरन ने श्रीगुसांईजी सों विनती करी, जो - महाराजाधिराज ! मैं प्रातःकाल गोपकुआ की ओर गयो हतो।पानें तहां तें जसोदा घाट न्हाइवे को चल्यो । सो मारग में श्रीठाकुरजी की मुरली को सब्द सुन्यो । सो मैं रमन रेती में गयो, तहां अलौकिक लीला देखी । आप की कृपा तें होरी के खेल को मैं दर्सन पायो । तहां यह धमार गायो। सो जव खेल होइ चुक्यो तव कछु देख्यो नाहीं । पाछे महावन गयो। सगरे ढूंढयो । सो फेरि दरसन न भये। यह सुनि कै श्रीगुसांईजी कहे, जो - प्रभु तुम्हारे ऊपर प्रसन्न होइ कृपा करि कै दरसन दिए हैं। सो इहां नित्य विहार करत हैं। अपने चाहे तें मिले नाहीं। जव आप के मन में होइ तबही दरसन देहि । सो तुम को फेरि हू दरसन होइंगे । तुम्हारो हृदय सुद्ध है । यह सुनि के आस- करन ने दंडवत् करि बिनती करी, जो- महाराज ! यह सव आप के चरनकमल कौ प्रताप है। मैं वार्ता प्रसंग-५ और एक समय आसकरन श्रीगुसांईजी के दरसन करन संध्या-आर्ति समै आए । सो ता दिन श्रीगुसांईजी आसकरन