पृष्ठ:दो सौ बावन वैष्णवन की वार्ता.djvu/२२१

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२०४ दोसौ चावन चैप्णवन की वार्ता सो या भांति आसकरन के ऊपर श्रीगुसांईजी अनुग्रह करते। श्रीठाकुरजी अनुभव करावते । घा प्रसग-६ और एक समय आसकरन श्रीगुसांईजी के संग श्रीजीद्वार गए। तहां चतुर्भुजदास मान कौ कीर्तन भोग समय गावत हते। राग: नट राधे तू मान मदनगढ कियो। वाको कोट ओट बूंघट कौ नाहिंन जात लियो । पठई वसीठ इते इतनी ते कोऊ न उत्तर दियो। 'चतुर्भुजदास' लाल गिरिधर को अधर-सुधारस पियो । यह सुनत ही आसकरन को मूर्छा आई। सो चारि घरी पाछे चैतन्यता भई । पाछे सेन आति समय आसकरन की मूर्छा बीती । सो सेन आति के दरसन आसकरन ने श्रीनाथजी के किये । मनमें वोहोत ही आनंद पायो। पाठे अनोसर कराय के श्रीगुसांईजी अपनी बैठक में पधारे । तव सगरे भगवदीय बैठकमें आए । आसकरन हू तहां बैठे । पाछे श्रीगुसांईजी श्री- सुबोधीनीजी कहे । सो कथा सुनि कै सगरे वैष्णव, आसकरन बोहोत ही प्रसन्न भए । पाछे आसकरन ने श्रीगुसांईजी सों विनती करी,जो-महाराजाधिराज! चतुर्भुजदास भोग के समय मान को कीर्तन गावत हते । सो इनकों उह लीला को अनुभव होत है? तब यह सुनि के श्रीगुसांईजी कहे, आसकरन ! तुम जानत नाहीं। चतुर्भुजदास को तो कुंभनदासजी सारिखे भग- वदीय श्रीआचार्यजी के अंतरंग सेवक, तिनके संग तें चतु- भुजदास को रहस्य लीला को अनुभव होंइ सो उचित ही है।