पृष्ठ:दो सौ बावन वैष्णवन की वार्ता.djvu/२२६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

एक सेठ, खरबूजावारौ, आगरे को २०९ नाहीं ल्यावत । मैं वोहोत कहि पचिहारयो । सो तुम अपने श्रीठाकुरजी को मेरे श्रीठाकुरजी के पास पधरावो । और तुम सागघर की सेवा करो। तो आछो है। तव उह वैष्णव ने कही, आछौ। तुम प्रसन्न होउगे तो ऐसो करूंगो । पाठे उह विरक्त ने अपने श्रीठाकुरजी कों सेठ के घर पधराए । पाछे सागधर की सेवा करन लागे । सो आगरे में आछे तें आछौ साग फलादि मेवा जो आवतो सो महेंगे तें महेगो ले आवतो। सो सेठ वोहोत उह विरक्त के ऊपर प्रसन्न रहतो। पाछे सेठ ने अपनो द्रव्य कौ कोठा उह विरक्त को सोपि दियो। और कह्यो, जो - सामग्री ल्याऊ सो दाम तुम ही दीजो । दुपहर पाछे हम कों लिखाय दीजो। सो उह विरक्त अपने मन-मानतो साग (और) आछी आछी सामग्री मेवा, फल ल्याई दाम आपु चुकाय देतो । पाछे राजभोग-आति पाठे, महाप्रसाद लिये पाळे, सब सेठ को लिखाय देतो। सो सेठ प्रसन्न होइ के लिख लेतो । ऐसें ही करत वोहोत दिन वीते । पाठें एक दिन कार्तिक कौ महिना हतो । ता दिन एक खरबूजा वोहोत सुंदर एक मेवा- फरोस ल्यायो । सो उह वैष्णव देखि कै वोहोत प्रसन्न भयो। कह्यो, आजु काल्हि की रितु में खरबूजा कहां मिले ? सो यह फल प्रभु अंगीकार करें तो आछौ है । पाछे उह विरक्त ने उह खरबूजा को मोल पूछ्यो । सो उह मेवा-फरोस में एक रुपैया कह्यो । तब वैष्णव में कही आछौ, एक रुपैया देऊंगो। यह फल मोकों दे । ता ठौर एक मुगल ठाढ़ो हतो। सो उन कह्यो, मैं दोइ रुपैया देऊंगो । खरबूजा मैं लेउंगो। तब वैष्णव ने कही मैं पांच रुपैया देउंगो। तब मुगल ने दस रुपेया कहे । तब २७