पृष्ठ:दो सौ बावन वैष्णवन की वार्ता.djvu/२४७

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२३० दोमो बावन वैष्णवन की वार्ता घा प्रमग-2 मुरारीदास अपने मनमें वोहोत प्रसन्न भये । तव प्रसन्न होंड़ के पत्र एक और मुरारीदास ने श्रीगुसांईजी को लिखि पठायो। जो- महाराज ! सास्त्र के वचन अति दुर्घट है । याकी पार नाहीं। तव श्रीगुसांईजी के पास मुरारीदास को पत्र आय पहों- च्यो। सो आपु वांच्यो । तव प्रभुन अपने मन में जान्यो, जो- याको यह विद्या स्फूर्त तो भई । वहोरि मुरारीदास को बड़ो बेटा हो । सा अपने पिता पास विद्या पढ़ि के 'विझापुर' गयो । तहां जाय के यह सर्व मायावादीन को जीत्यो। भक्तिमार्ग दृढ़ करयो। तव दक्षिन के ब्राह्मन आपुस में कह्यो, जो - हमारे आगे यह गुजराती जीत्यो ! यह वड़ो आश्चर्य लागत है । पाछे उन ब्राह्मनन मुरा- रीदास के बेटा सों पूछयो, जो - तुम्हारो कौन संप्रदाय है ? तव मुरारीदास के वेटा ने उन ब्राह्मनन सों कही, जो - हमारी वल्लभी संप्रदाय है । हम श्रीगुसांईजी के सेवक हैं । तव वा महाराष्ट्र ने कही, जो- यह सांची वात है। श्रीगुसांईजी ने प्रथम हू मायावाद को खंडन कियो है। पाछे वह मुरारीदास को बेटा कछुक दिन विझापुर में रहि मैं अपने देस आयो । अपनी माता सों मिल्यो । तव मुरारीदास कहीं गाम गए हुते। सो जव मुरारीदास गाम सों आए तब मुरारीदास को बेटा मुरारीदास सों मिलि कै दक्षिन के ये सर्व समाचार कह्यो । तब बेटा के वचन सुनि के मुरारीदास बोहोत प्रसन्न भये । सो ये मुरारीदास और यह इन कौ बेटा, ये दोऊ श्रीगु- सांईजी की कृपा तें ऐसें पंडित भए। तातें इनकी वार्ता को पार नाहीं, सो इनकी वार्ता कहां तांई कहिए। वार्ता ॥ १३०॥