पृष्ठ:दो सौ बावन वैष्णवन की वार्ता.djvu/२६६

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मेहा धीमर, गोपालपुर को २५३ सों यह प्रसाद दियो है। ये साक्षात् ईश्वर कहियत हैं। तव स्त्रीने कही, जो-चलो इनकी सरनि जैये । तव मेहा ने अपनी स्त्री सों कह्यो, जो - हम तो ज्ञाति करि के हीन हैं। हम को सरनि कैसे लेइगें ? तव स्त्रीने कह्यो, जो - तुम चलो तो सही। जैसे प्रसाद दिये हैं कृपा करि तैसें ही सरनि लेइंगे। तव मेहा और मेहा की स्त्री दोऊ जनें श्रीगुसांईजी के डेरा पास रात्रि कों वैठि रहे । तव ब्रजवासी उन सों पूछी, तुम कौन हो ? और या समै रात्रिकों डेरा के निकट क्यों बैठे हो ? तव मेहा ने कही, जो - हम को श्रीगुसांईजी महाप्रसाद दिये हैं। तातें हम वैसें हैं । तव वा ब्रजवासी ने कही. जो - अव तो तुम उठि जाउ । इहां मति रहो। कछु काम होइ सो कहो । नव मेहा ने कही, जो - हम अब कहां जाँइ, सो कहो ? अव हम श्रीगुसांईजी की सरनि आए हैं । अव हम को कहूं ठौर नाहीं है। यह हमारी विनती है, सोश्रीगुसांईजी सों कहो। पाठें हम को उठाइयो। तव ब्रजवासी श्रीगुसांईजी सों कह्यो, जो- महाराज ! मेहा धीमर स्त्री सहित वैठ्यो है । सो कहत है, जो - हम श्रीगुसांईजी की सरनि आये हैं। हम वोहोत कह्या. परि वह जात नाहीं । मेहा ने यह कही, जो - हम कों और ठौर नाहीं है। यह भांति दोऊ जनें डेरा के वाहिर बैठे हैं। तव श्रीगुसांईजी ब्रजवासी सों कह. जो - तू जाँइ कै मेहा सों कहि आऊ, जो - आज तुम सोय रहो । काल्हि प्रातःकाल तुम्हारो अंगीकार करेंगे । तुम चिंता मति करो । तब ब्रज- वासी डेरा सों वाहिर आय के मेहा सों को, जो - आज तुम सोय रहो । काल्हि प्रातःकाल तुम दो जने को अंगी- -