पृष्ठ:दो सौ बावन वैष्णवन की वार्ता.djvu/२७१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

२५८ दोसौ बावन वैष्णवन की वार्ता वडड़े वैठि विचार मतो करि, पर्वत कों वलि दीजें। नंदराय को कुंवर लाडिलो, कान्ह कहे सो कीजें ॥ माखन दृध दह्यो घृत पक लेले, चले सकल ब्रजवासी। मिटयो भाग सुरपति जिय जान्यो, मेघ दियो मुकराई। 'मेहा' प्रभु गिरि कर धरि राख्यो, नंदकुंवर सुखदाई । राग . मारग सुनिए तात हमारो मत, गोवर्द्धन पूजा कीजे । जो तुम जज्ञ रच्यो सुरपति को, सो सव इहां ले दीजे ॥ कंदमूल फल यह फल की निधि, जो मांगो सो पावो । यह गिरि वास हमारो निसदिन, नि: गाँइ चरावो ॥ दूध दही के माट भरावो, विजन अमृत अपार । मधु मेवा पकवान मिठाई, भरि भरि राखे थार ॥ बड़डे वैठि विचारि मतो करि, कान्ह कहे सो कीजे । विविध भांति के अन्नकूट करि, पर्वत को वलि दीजे ॥ यह नग नाना रूप धरत हैं, ब्रजजन को रखवारौ। देवन में यह बड़ो देवता, मोहू को अति प्यारौ ॥ नंदनंदन यही रूप धरि, आपुन भोजन कीयौ । 'मेहा' प्रभु गिरिधरन लाडिले, मांगि मांगि के लीयो । इत्यादि अन्नकूट के कीर्तन मेहा गावत हैं।सो सांझ होंई। सो देहानुसंधान भूलि गयो । मेहा की स्त्री हू कों कछु देह की सुधि रही नाहीं । सो एक वैष्णव खरिक में मेहा की दसा देखि कै श्रीगुसांईजी सों जाँइ कही । तव श्रीगुसांईजी आपु खरिक में पधारे । तब श्रीगुसांईजी मेहा के कान में कहे, जो- कहा समाचार है ? तब मेहा ने श्रीगुसांईजी कों दंडवत् कियो।