पृष्ठ:दो सौ बावन वैष्णवन की वार्ता.djvu/२९४

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स्त्री-पुरुप, राजनगर के हती सो धक्का तें गिरि परो । सो वाकी अंतकाल भयो । यामें तुम्हारो कछु दोप नाहीं। तब वा वैष्णव ने कही, जो - महा- राज! मेरे हाथ तें मरी है। तव श्रीगोकुलनाथजी ने आज्ञा करी, जो - एक निष्कंचन अकासवृत्तिवारी वैष्णव होइ तिन को बुलाइ के श्रीठाकुरजी पाछे महाप्रसाद लिवाय दीजो । तव इन वैष्णव ने कही, जो - महाराज ! मो हत्यारे के घर कौन वैष्णव आवेगो ? तब आपने आज्ञा करी, जो हमारो नाम लेनो ! पाछे वह वैष्णव अपने घर जाँई के सुंदर भांति की सामग्री करि के श्रीठाकुरजी को भोग समर्पि के पाछे एक निष्किंचन वैष्णव देखि कै उन तें हाथ जोरि के कही, जो - श्रीगोकुलनाथजी की आज्ञा तें मेरे घर चलो। तव उन वैष्णव ने कही, जो - भले, आपकी आज्ञा चहिए। जो चाहे सो करे। तातें चलो। सो उन वैष्णव को घर ल्याये । पाठे जो - जो सामग्री श्रीठाकुरजी आरोगे सो - सो सामग्री वा वैष्णव के आगेधरी। तव वा वैष्णव निकिचन ने थोरो थोरो महाप्रसाद सब सामग्रीन में तें ले के एक कौर ले के उठ्यो । तब इन वैष्णव ने कही, जो-महाप्रसाद कृपा करि कै आठी भांति सो लेऊ। तब उन निष्किचन ने कही, जो-तोकों एक हत्या है, सा तो गई। याही के लिये महाराज ने आना करी हती। और लिवा- वनो होंड तो और दिना लिवाइयो। आज तो इतनोइ लेइंग। ऐसे कहि उठि गयो। पाठें वह वैष्णव श्रीगोकुलनाथजी की पास आयो। दंडवत् करी। तव आपने पूछी, जो - महाप्रसाद वैष्णव को लिवायो ? तब वैष्णव ने कही. जो-महाराज ! आप की आज्ञा तें वह वैष्णव ने आय के एक कौर लीनो। मैन 29