पृष्ठ:दो सौ बावन वैष्णवन की वार्ता.djvu/३११

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३०८ दोमो घावन वैष्णवन की वार्ता दीय वैष्णव होइ ताकी संग करे । पाठे वह विरक्त पृथ्वी पर्यटन करन लाग्यो। ऐसें करत एक दिन वह एक गाम में आयो । सो तहां काहू वैष्णव के वेटा को सर्प ने डस्यो । सो वह मरयो । तव वाकी महतारी रोवन लागी । सो बोहोत विलाप करि के रोवत हुती । सो ता मार्ग में वह विरक्त वैष्णव और औरह वैष्णव भगवदीय चले जात हुते। तव वा विरक्त वैष्णव ने पूछी, जो- ये क्यों रोवत है ? तब दूसरे लोग ठाड़े हते तिन सर्व वृत्तांत कह्यो । तव वा विरक्त वैष्णव कों दया आई । तव वा विरक्त वैष्णव ने भगवन्नाम को उच्चार कियो । सो वह जीयो। तव सव लोग वाके पाछे परे । और कहन लागे, जो - यह विद्या आपके पास है सो हमकों सिखावो । तव वा विरक्त वैष्णव ने कह्यो, जो-हों सिखाऊं तो सही, परंतु तुमकों हमारो विश्वास नहीं आवेगो। तव उन वा विरक्त वैष्णव सों कह्यो. जो- विश्वास कैसें नहीं होइगो । प्रत्यच्छ देखि के विस्वास न आवे सो कैसें मानें ? पाठे विरक्त वैष्णव ने कह्यो, जो- हम तुम कों यह मंत्र सिखावत हैं। सो तुम ह अहर्निस कहियो । जो- 'श्रीकृष्णः शरणं मम' अहर्निस कहते रहियो। तव उन, विरक्त वैष्णव सों ह्यो, जो - ए तो मंत्र हम जानत ही हैं। परि दूसरो मंत्र क्यों नहीं कहत हो ? तव वा विरक्त वैष्णव ने कह्यो. जो - यह मंत्र सर्वोपरि है। ता पाछे वह विरक्त वैष्णव उहां तें आगें कों चल्यो। सो ऐसें अहर्निस फिस्यो करतो। सो जहां तांई विरक्त वैष्णव की देह चली, तहां तांई फिरिवो कियो । सो ता पाछे वह विरक्त वैष्णव की देह छूटी । सो