पृष्ठ:दो सौ बावन वैष्णवन की वार्ता.djvu/३१७

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३१४ दोगी बावन वणन की वार्ता सो हतो सो चारयों जनन को वाँटि लियो । मो मथुग के चले आगरे पहोंचे हते । सो चाचाजी महित चागे वष्णव हारि गए हते । सो सोड़ रहे । इतने में चारों वष्णव की नींद आइ गई । और चाचा जागत हते । सो वह चांतग देवी उपासिक ब्राह्मन कनोजिया को हतो । सो जब अर्द्धरात्रि गई तव वह ब्राह्मन कनोजिया ने देवी की प्रार्थना करी । मो देवी आय के देखे तो चाचा हरिवंसजी चारों वैष्णव समेत चोतरा ऊपर सोये हैं । और ज्येष्ठ की दिन है । सो गरमी वोहात हती। और पांचों वैष्णव हारे हते। यह देवी जानि के विचा- रयो, जो - आज मेरी सेवा की दाव परयो है। श्रीगुसांईजी के अंतरंग सेवक है । इनकी सेवा करी चाहिये । तब देवी ने अपने चारि स्वरूप और प्रगट किये । सो चारों के हाथ पंवा दे तिन सों कह्यो, जो - तुम चारों वैष्णव की सेवा करो। मैं चाचा हरिवंसजी की सेवा करत हों। तब देवी के चारों स्वरूप वैष्णव की सेवा करन लागे । देवी चाचा हरिवंसजी की सेवा करन लागी । तव चाचा हरिवंसजी यह सव अभिप्राय जानें। तव आपने मुख ऊपर ऊपरेना डारि के सोय रहे । और वे चारों वैष्णव नींद में । उनकों कछ, खवरि नाहीं है । सीतल व्यार लागी सो और हू नींद आई गई। या प्रकार देवी तो इहां चाचा हरिवंसजी की सेवा करन लागी । और उहां वह ब्राह्मन न्हाय के घी को दीयो वारि के देवी की स्तुति अनेक प्रकार की कियो । सो देवी नाहीं आई। सो ब्राह्मन कों महा क्षोभ भयो । भय भयो । जो - आज देवी मेरे ऊपर अ- प्रसन्न हैं । सो मोसों कछु चूक परी । सो अव मैं कहा करों ?