पृष्ठ:दो सौ बावन वैष्णवन की वार्ता.djvu/३१९

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३१६ टोमी बावन वैष्णवन की वार्ता हो। तुम को हमारी सेवा करनी उचित नाहीं है । तुम कों सगरो जगत पृजत है । यह मुनि के देवी ने विनती करी. जो- भगवदमाया करि मोहित जो जीव हैं सो हमारी मेवा करत हैं। सो मेरी पूजा करत हे तिन कों में लौकिकामक्ति कराय, तीन गुन माया के हैं तिन में डारि देति हो। ता करि जीव सदा दुःख पावत हैं। भावप्रकाग-काहे तं, जो - मेरी पूजा करन है निन कों में जाननि हो. जो - भगवान इन की अंगीकार नहीं किया है। नातं में टन को मंगाम डारत हों। तातें आज मेरे बड़े भाग्य हैं, जो-तुम मारिखे वड़ भग- वदीय कौ दरसन भयो । और कच्छक सेवा मिली। तब चाचा- जी कहे, अव तुम जाऊ । तव देवी पांचों स्वरूप को एक स्व- रूप करि के उह स्त्री-पुरुष ब्राह्मन पास आई। और चाचा हरि- वंसजी ने यहां चारों वैष्णवन को जगाये । कहे, इहां ते वेगि चलो। तव चारों वैष्णव सहित आगरे में संतदास के घर आए। तव संतदासजी चाचा हरिवंसजी को वोहोत सन्मान करि भाव भक्ति सों अपने घर में राखे। तहां चाचाजी और चारों वैष्णव देहकृत्य करि दांतिन करि न्हाय कै चाचाजी रसोई किये। और उह देवी प्रातःकाल उठि के वह स्त्री-पुरुष ब्राह्मन के पास गई। सो देखें तो घी को दीया धरि देवी के अर्थ होम करत हैं। देवी की स्तुति करत हैं। सो देवी को देखि के दोऊ स्त्री-पुरुप उठि कै ठाढ़े भए। साष्टांग दंडवत् करि कै देवी के पाँइन परिवोहोत बिनती करि पूछे, जो - माताजी ! आज तुम या समय आई! सो तुम्हारी पूजा में मेरी कहा चूक परि है ? जो - अपराध