पृष्ठ:दो सौ बावन वैष्णवन की वार्ता.djvu/३९६

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' एक ब्राह्मन विरक्त वैष्णव. गुजरात को ३९७ जो - हों तो श्रीठाकुरजी के चरनारविंद कौ आश्रय करत हों। तो सर्व दोष सहजही में छुटे । और लौकिक धर्म हैं सा सव वृथा हैं। ऐसो जाने तव सेवक को धर्म सहज में प्राप्त होई । और भगवदीय वैष्णव, जो सेवा के धर्म आचरे तो वाधक नाही उपजे । सो काहेतें, जो - श्रीठाकुरजी जानें, जो - मेरी सेवा करत हैं । सो ताही ते श्रीठाकुरजी आप सेवाही को फल देत हैं। और ब्रजभक्तन की जैसी प्रीति होइ, तब अंगीकार होइ। लौकिक प्रपंच को लेस ही मन में न राखे। सर्वस्व करि के श्री- गोवर्द्धननाथजी को जाने, और सर्व वात को त्याग करे । और वेनुनाद सुने । सो ये भगवदीय वैष्णव की लीला-प्राप्ति के लक्षन । ताही तें कुसुमित फल है, सो फलित हों। और रोमांचित होइ। और अपने मन में हरखे। मधुर धारा (वचन) वरखे। तातें भगवदीय वैष्णव को धर्म ऐसोई है, जो - भगवद् प्राप्ति तथा भगवदीय वैष्णवन के अर्थ सर्व समर्पत हैं । यह तो सर्व वात एकवार होत है । सो श्रीठाकुरजी तथा ब्रजभक्तन को बोहोत भयो। तातें या प्रकार सों भगवदीय वैष्णव को सदा रहनो। और वैष्णव को तीन वस्तू की रक्षा करनी । सो प्रथम तो विवेक, ता पाळे धैर्य, ता पाठे आश्रय । सो इन तीनोंन को जतन करनो। सो प्रथम तो विवक को तात्पर्य कहत हैं, जो श्रीमहाप्रभुजी आज्ञा करत हैं. जो- प्रभु ! सव आछोही करत हैं। ऐसो विस्वास राखनो। कैसी ही स्थिति प्राप्त होंइ परि श्री- ठाकुरजी सों प्रार्थना करनी नाहीं । प्रभुजी की इच्छा होगी सोई करेंगे। तातें सर्वथा करि के भगवदीय वैष्णव को प्रार्थना नहीं करनी। मन में एक निर्धार करनो. जो-श्रीप्रभुजी सर