पृष्ठ:दो सौ बावन वैष्णवन की वार्ता.djvu/४०४

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एक क्षत्री, पूरव को घार्ता प्रमंग-१ सो वोहोरि श्रीगुसांईजी पुरुषोत्तमपुरी श्रीजगन्नाथरायजी के दरसन कों पधारे । सो वा क्षत्री ने सुनी, जो - श्रीगुसांईजी श्रीजगन्नाथरायजी के दरसन कों पधारे हैं । तव वह क्षत्री घर में जो हतो सो सव ले कै श्रीगुसांईजी के दरसन को चल्यो। सो पुरुषोत्तमपुरी आयो । पाठें श्रीगुसांईजी के पास जाँइ बिनती कीनी, जो - महाराज ! कृपा करि कै मोकों सरनि लीजिए । तव श्रीगुसांईजी ने वाकी वहोत आरति जानि कृपा करि के वाकों सरनि लियो । वाको नाम सुनायो । ता पाछे एक व्रत करवाय के समर्पन करवायो। पाठे वा क्षत्री वैष्णव ने विनती करी, जो - महाराज ! मोकों कहा आज्ञा है ? तव श्री- गुसांईजी ने कही, जो -श्रीठाकुरजी की सेवा करो। तव वा क्षत्री वैष्णव ने श्रीगुसांईजी सों विनती कीनी, जो- महाराज! मो ते इकले ते भगवत्सेवा कैसे बने ? तातें महाराज ! हों तो आप की सेवा करोंगो । और आप के संग ब्रज को चलंगो। श्रीगोवर्द्धननाथजी के दरसन कों। तब श्रीगुसांईजी कहे, जो- आछो । ता पाछे वा क्षत्री वैष्णव ने जो - कछु पास हतो सो सव श्रीगुसांईजी की भेंट कीनो। पाछे श्रीगुसांईजी के मंग रह्यो। और जो - सेवा देखेमो करन लाग्यो । मो मेवा भली भांति सों करतो। पाळे महाप्रसाद लेतो। पाछे श्रीगुसांईजी श्री- गोकुल पधारे । सो यह क्षत्री वैष्णव हु संग आयो। मो केतक दिन श्रीगोकुल रहि के ता पाछे श्रीगुसांईजी घोड़ा पर विराजि श्रीनाथजीद्वार पधारे । सो उह क्षत्री वैष्णव ह श्रीनाथजीद्वार गयो । सो श्रीगुसांईजी तो उत्थापन के सम पहोंचे । मो श्री-