पृष्ठ:दो सौ बावन वैष्णवन की वार्ता.djvu/४१०

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एक अन्यमारगी, जानें म्मसान में वैठि के खायो वाकौ कोढ़ निवृत भयो । सुंदर दिव्य नौतन सरीर भयो । ता पाऊँ उह राजा बहोत ही प्रसन्न भयो । पार्छ वा वैष्णव ने राजा सों कही, जो - तुमने मेरी जूंठनि क्यों खाँई ? तव राजाने वा वैष्णव सों कही, जो - मोकों श्रीगुसांईजी की आज्ञा हती, जो-तू स्मसान में जाँइ कै वा वैष्णव की जूंठनि खाइगो, तब तेरो रोग जाइगो । सो मैं आपुकी आज्ञा मानि के आयो हूं। सो तुम्हारी जूंठनि खाँई । तब मेरो रोग गयो । तव वा वैष्णव ने कही, जो - अज हू श्रीगुसांईजी मेरी सुधो करत हैं ? पाठे वा वैष्णव ने अपने मन में यह निश्चय कियो, जो - श्रीगुसां- ईजी तो साक्षात् ईश्वर हैं। और मैंनें दुष्टता वोहोत ही कीनी। परि प्रभु बड़े दयाल हैं। जो - मेरो दोष न विचारे, जो उलटो गुन करि कै माने । तातें मोकों छोरे नाहीं । सो मेरो कृत्य आपु न देखे । तातें अव मैं आपु के पास जाँइ प्रभुन की आज्ञा प्रमान सेवा करूंगो । सो उहां सों स्नान करि अपने घर आय वस्त्र पहरि कै श्रीगुसांईजी के पास आयो । पाठे विनती करी, जो- महाराज! आप तो पूरन पुरुषोत्तम हो और मैं तो दुष्ट स्वभाव करि कै दुष्ट जीव हों । और दुष्ट कर्म वोहोत ही किये हैं। परि आपु तो परम दयाल हो । तातें अव मेरे ऊपर कृपा अनुग्रह करिये । तब श्रीगुसांईजी आपु कृपा करि कै आज्ञा किए, जो - काल्हि एक व्रत करि ब्रह्मसंबंध करियो । तव श्रीगुसांईजी की आज्ञा प्रमान वह व्रत करि के दूसरे दिन स्नान करि अपरस वस्त्र पहरि कै श्रीगुसांईजी के पास आयो। और विनती करी, जो - महाराज! कृपा करि कै मोकों ब्रह्मसंबंध करवाइए । तब श्रीगुसांईजी आपु वा वैष्णव