पृष्ठ:दो सौ बावन वैष्णवन की वार्ता.djvu/४६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

एक बनिया, गुजरात का ३७ गयो । परि चाके मन में बोहोत आरति रहे, जो-कब श्रीगुसांईजी यहां पधारे और हों उनको सेवक होउं । ऐसें करत कड़क दिन में श्रीगुसांईजी वा गाम में पारे । तब वा वैष्णव ने वा बनिया के बेटा सो कन्यो, जो - श्रीगुसांईजी इहां पंधारे हैं, तेरी ईच्छा होई तो वैष्णव होऊ। तब तो बनिया को बेटा प्रसन्न व्हे श्रीगुसांईजी के दरसन को आयो । और विनती कियो, जो - महाराज ! मोकों कृपा करि अपनो सेवक ,कीजिए। हों आप के सरनि हूं। तातें विलंब मति कीजिए । तब श्रीगुसांईजी वाकी बोहोत आरति देखि वा]ों नाम सुनाय सेवक किये । पाठे दूसरे दिन व्रत कराए । ता पाछे निवेदन कराए । तब वा बनिया के बेटा ने कह्यो, जो - महाराज ! श्रीटाकुरजी पधराय दीजिए तो हो सेवा करों ' तब श्रीगुसांईजी कहे. जो अब ही नाहीं। काहेतें, जो - तेरे मा-बाप जैनी है । तातें तोसों अवहीं सेवा न पनि आवेगी। कडूक दिनमें तेरे मा-धाप मरेंगे। तब तू अडेल आईयो । तहां तोको सेवा पधराय देइंगे । अबही तृ वैष्णवन को संग करि । पार्छ श्रीगुसांईजी आप तो उहां ते द्वारिकाजी को विजय किये । सो उहां कछुक दिन रहि पाउं अड़ेल पधारे । ता पाछे कच्छक दिनमें वा पनिया को व्याह भयो । पाछे केतेक दिन पाछे वा बनिया के मा-बाप मरे । तब वह स्त्री को संग लेक अड़ेल आयो । सो स्त्री को श्रीगुसांईजी पास नाम-निवेदन करवायो। पाठे वह श्रीगुसांईजी सों विनती कियो. जो-महागज ! अव मेरे कोई प्रतिबंध नाहीं है । तातें कृपा करि भगवद् सेवा पघराय दीजिए । श्रीगुसांईजी बांकों एक लालजी को स्वरूप पधराय दिये । पाछे सेवा की सब रीति बताई। ता पाछे यह वनिया श्रीगुसांईजी की आज्ञा मांगि श्रीठाकुरजी पधगय स्त्री को संगले अपने ट्रेस आयो। मो भाव-प्रीति पूर्वक सेवा करन लाग्यो । नित्य वैष्णवन को संग करे । पार्छ कक दिन में एक बेटी भई । तन. यात सग-२ 5 सो वह वनिया परम भगवदीय हतो। सो वाके एक बेटी कुंवारी हती । सो कन्या के निमित्त वह वर ढूंढन को गयो। परंतु कोऊ वैष्णव मिल्यो, नाहीं । तब एक जैन धर्मी ज्ञाति को मिल्यो । तव वासों अपनी बेटी को विवाह करि दीनो। सो वह वैष्णव की बेटी अपने घर की गई। तब वह