पृष्ठ:दो सौ बावन वैष्णवन की वार्ता.djvu/५३

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दोसौ बावन वैष्णवन की वार्ता पाळे महाप्रसाद ले के मजलि चले । सो ऐसे करत एक दिन मेह बोहोत बरस्यो । सो रसोई न पनि आई । पाछे दो दिन ओर हू मेह न खुल्यो । सो यह चल्यो । सो चल्यो न जाँई । तव यह विचार कियो, जो-अव मैं कहा करों ? पानी तो रहत नाहीं । और ऐसे में चुकटी कैसें मांगों ? कैसे रसोई करों ? तातें आजु तो कहूँ श्रीगुसांईजी को सेवक मर्यादी होइ तो ताके घर भली भांति सों महाप्रसाद लेऊ, पाछे सोऊं। तब मेरो सरीर आछौ होंइ । तीन रात्रि कों भींज्यो हूं तातें नीद न आई । ऐसें कहत चल्यो । भावप्रकाश-यहां यह संदेह होई, जो- यह वैष्णव तो तासी है। तातें तादृसी वैष्णव को भृखप्यास देहाध्यास तो वाधा करि सवत नाहीं । देस- काल हू वाधा करत नाहीं । सो या विरक्त वैष्णव को ऐसो कष्ट क्यों भयो ? और इनके मन में खानपानकी अपेक्षा क्यों भई ? तहां कहत है, जो - यह विरक्त चाहतो तो छिन एक में मेह खुलि जातो । और देहाध्यास भूख-प्यास ह बाधा न करती । परि आगें राजा की ऊपर कृपा करनी है। तातें प्रभुनने या भांति कौतुक कियो । सो तासी वैष्णव को कछु वस्तु की अपेक्षा होई नाही । और जो होई तो इन में भगवद् कृति जाननी । दूसरे की ऊपर कृपा करनार्थ । यह सिद्धांत जताए । सो एक बड़ो गाम हतो। तहां एक राजा हो। सो राजा में अनेक व्याह किये। परंतु पुत्र काहू एक के न भयो। सो राजा वृद्ध होइवे में आयो। तहां एक ब्राह्मन सिव को उपासक आयो। ता ब्राह्मन को सिव दरसन देते । सो वह ब्राह्मन राजा के पास आयो । कह्यो, जो - मोकों पांच हजार रुपैया देऊ तो मैं जतन करों । सो तुम्हारे अवस्य पुत्र होइगो। तब राजाने वा ब्राह्मन सों कह्यो, जो- मेरे भाग्य में पुत्र नाहीं है तातें तू काहे को जतन करत है ?