पृष्ठ:दो सौ बावन वैष्णवन की वार्ता.djvu/६६

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रामदास विरक्त ब्राह्मण निरुत्तर कीने हैं। तब वे समाधान करि के पाछे फिरि गए । तव श्रीगुसांईजी आप श्रीसुख ते वा वैष्णव सों कह्यो, जो- या परमानंद सोनी को श्रीआचार्यजी महाप्रभुन में और श्री- गोवर्द्धननाथजी में दृढ़ विस्वास है । तातें या बात में कहा आश्चर्य ? सौ वैष्णव को तो एक दृढ़ विस्वास त्रहिए। और जाको दृढ़ आश्रय होई ताकों जो चाहे सोई होइ। और जो अपने मन में विचार करे सोई कार्य करे । जा वैष्णव को दृढ़ आश्रय नाही होई ताका पश्चात्ताप कलेस होइ । सो ऐसे श्रीगुसांईजी आप श्रीमुख तें वा वैष्णव सों कहे. सो याही ते वह ऐसी बात है। तातें वैष्णव को ऐसो ही चाहिए। सो चे परमानंद सोनी श्रीगुसांईजी के ऐसें परम कृपा- पात्र भगवदीय है. तातें इनकी वार्ता कहां तांई कहिए । वार्ता ॥२४॥ ' अब श्रीगुसांईजी के तेवक रामदाम घिरक्त वामन, भाइच मे, तिनशी दाताको भाव कहन हैं. भावप्रकाश-ये सात्विक भक्त हैं। लीला में इनको नाम 'कामेसुरी' है । ये 'नागवेलिका' ते प्रगटी हैं, तातें उनके भावरूप हैं । ये खंभाइच में एक ब्राह्मन के उहां प्रगटे । मो बालपने मों वैराग्य दया में न्हे । सो बरस पंद्रह के भए । तब खंभाइच ते एक मंग गुजगत के प्णवन को श्रीगोवर्द्धननाथजी के दरसन को चन्यो। ता मंग में गमदासद चले । मो विरक्त दसा में रहे। चुफटी मांगि निर्वाह करे । गति को वैष्णवनकी मंटली में पेठे । मो भगवद् वार्ता सुने । ऐस करत कछुक दिन में या मंग के माध गमठाम गोपालपुर आये । गो श्रीगोवर्द्धननाथजी को दग्मन पाए । - ग्रामांग- सो एक समै श्रीगुसांईजी श्रीनाथजीद्वार विराजत हुते। सो रामदाम श्रीगुसांईजी के दरसन किये । नव इन श्रीगुसांई-