पृष्ठ:दो सौ बावन वैष्णवन की वार्ता.djvu/६७

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५६ दोसौ वावन वैष्णवन की वार्ता जी को साष्टांग दंडवत् करि विनती कीनी, जो-महाराज ! कृपा करि कै नाम दीजिए । तव श्रीगुसांईजी आप आज्ञा किये, जो - स्नान करि आउ । तोकों नाम सुनावेगें। तव रामदास तत्काल स्नान करि कै आये । पाछे श्रीगुसांईजी कों बिनती किये, जो-महाराज ! मैं स्नान करि आयो हूं। तव श्रीगुसांईजी कृपा करि रामदास का नाम सुनायो । पाठे श्रीगुसांईजी रामदास को आज्ञा किये, जो-रामदास ! अव कहा मनोरथ है ? तव रामदास श्रीगुसांईजी सों विनती किये, जो - महाराज । मेरे परम भागि हैं, जो-आपने मेरे ऊपर कृपा करि मोकों सरनि लियो। अव अनत कहूँ जानो नाहीं है। आप जो आज्ञा करेंगे सो करोंगो । तव श्रीगुसांईजी रामदास को आज्ञा किये, जो - तू 'दंडवती सिला' आगें वैठि छह महिना तांई अष्टाक्षर-मंत्र का जप करयो करि । पाठे तोकों और वात कहेंगे। तव तो रामदास प्रसन्न व्है दंडवती सिला आगें आय बैठे । सो नित्य नेम सों अष्टाक्षर की माला फेरें । ऐसें करत छह महिना वीते । तव रामदास श्रीगुसांईजी के पास आइ विनती किये, जो-महाराज ! आप की आज्ञा प्रमान छह महिना लों अष्टाक्षर को जप कियो । अव कहा कर्तव्य ह ? सो कृपा करि कै कहिए। तब श्रीगुसांईजी आप रामदास कों आज्ञा किये, जो - रामदास ! काल्हि तोकों ब्रह्म- संबंध करावेंगे, आज श्रीगोवर्द्धननाथजी के दरसन करो। पाछे श्रीगुसांईजी आप स्नान कर कै श्रीगिरिराज पर्वत ऊपर श्रीगोवर्द्धननाथजी के मंदिर में पधारे। सो उत्थापन-भोग धरें। पाछे दरसन खुले। तब सब वैष्णवन श्रीनाथजी के दरसन