पृष्ठ:दो सौ बावन वैष्णवन की वार्ता.djvu/७१

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दोसौ बावन वैष्णवन की वार्ता रहनो यह जीव को धर्म है। पाछे रामदास वोहोत प्रसन्नता सों सेवा करन लागे। ता पाछे श्रीआचार्यजी के ग्रंथन को एकांत में पाठ करते। अष्टाक्षर पंचाक्षर अहनिस जपते। भावप्रकाश-या वार्ता को अभिप्राय यह है, जो - अष्टाक्षर मंत्र को जप, किये ते हृदय सुद्ध होत है । और पंचाक्षर के जप किये ते विरह को दान होत हैं। तब श्रीगोवर्द्धननाथजी अपनी लीलान को अनुभव करावत हैं। ताते वैष्णव को अष्टाक्षर पंचाक्षर को जप अवस्य करनो। और श्रीगुसांईजी आप रामदास को दंडवती सिला आगे वैठि के जफ करन को कहे, ताकौ आसय यह, जो-दंडवती सिला हरिदास वर्य के चरन हैं। तातें भक्तन के सानिध्य उन को आश्रय करि जप किये ते तत्काल भगवद्स की प्राप्ति निश्चय होइ यामें संदेह नाहीं, यह भाव जतायो। और रामदास परम प्रीति सों श्रीगोवर्द्धननाथजी की सेवा करते । और राजभोग पाछे श्रीगोवर्द्धननाथजी की प्रसादी रसोई में जाय महाप्रसाद लेते। और इन को श्रीगुसांईजी को जूंठनि महाप्रसाद हू मिलतो। सो वह महाप्रसाद लेइ निर्वाह करते । पाछे सांझ को सेन पाछे श्रीगुसांईजी की कथा सुनते। ता पाछे अपनी कोठरी में जाँइ भगवद्वार्ता कीर्तन करते । सो दोइ चारि वैष्णव होते सो सुनते। पाछे सब को महाप्रसाद देते। ता पाछे आप चना चवेना खाँइ कै सोय रहते। सो घरी चारि सवेरे उठि के देहकृत्य करि के दंतधावन करि स्नान करि श्रीनाथजी की सेवा में जाते। सो सेवा सों पहोंचि गोविंद- स्वामी की 'कदमखंडी' में जाते । सो गोविंदस्वामी के पास बैठते । सो गोविंदस्वामी कीर्तन करते ता समय श्रीगोवर्द्धन- नाथजी नृत्य करते । सो रामदास दरसन करते। या प्रकार श्रीगोवर्द्धननाथजी रामदास पर कृपा करते।