पृष्ठ:द्विवेदीयुग के साहित्यकारों के कुछ पत्र.djvu/११

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- - "प्रबल विरोधी थे। पं० पद्मसिंह शर्मा भी छायावाद के प्रशंसक नहीं थे। इतना होते हुए भी उन्होंने श्री मोहनलाल महतो 'वियोगी' की छायावादी कविताओं के संग्रह की प्रशंसा की थी तथा एक पत्र में श्री बालकृष्ण राव की कविताओं को भी सराहा था। अपने एक पत्र में उन्होंने श्री सुमित्रानन्दन पंत की मुलाकात का भी 'जिक्र किया है। पंत जी ने 'पल्लव' की भूमिका में ब्रजभाषा की पुरानी कविताओं की जो निन्दा की थी, वह शर्मा जी को नागवार जरूर गुजरी होगी और इसी संबंध में शर्मा जी ने लिखा है कि "इस बार पहली बार पं० सुमित्रानन्दन पंत से बिजनौर में मुलाकात हुई। आदमी तबीयत के साफ और “जैन्टिलमैन" मालूम हुए। “पल्लव" की भूमिका में जो पहले कवियों के विषय में अन्ट' शन्ट, अनापशनाप ऊलजलूल लिख गए हैं, उसे वापस लेने को कहते थे। यह भी कहते थे कि ब्रजभापा का विरोध करने के लिए मुझसे खासतौर पर कहा गया था, इसी से वैसा लिखना पड़ा इत्यादि । गला सुरीला है। सुर-ताल से वाकिफ है। राग-रागनियों के नाम जानते हैं। आजकल के आदर्श छायावादी कवि में जो गुण होने चाहिएं सब है।" . (चतुर्वेदी जी के संग्रह पत्र संख्या ८३ से उद्धृत)। प्रस्तुत संग्रह में संकलित शर्मा जी के पत्रों का साहित्यिक महत्व है। द्विवेदी जी की नैषधीय चरित्र चर्चा तथा अन्य कृतियों का इन पत्रों में उल्लेख हुआ है। 'शर्मा जी ने उन्हें लगातार साहित्यिक सेवा में जुटे रहने की प्रेरणा भी दी है। बही हमेशा उनके समक्ष एक न एक मांग पेश करते रहे हैं। द्विवेदी जी के सत्प्रयत्नों की प्रशंसा करते हुए उर्दू की रचनाओं के हिंदी कृतियों की तुलना में उन्होंने लिखा है- "आपने बहुत अच्छा किया जो 'लिबर्टी' का अनुवाद कर दिया, उसका 'अनुवाद उर्दू में तो (सुना है ) हो चुका है। बेचारी दुखिया हिंदी को उर्दू के सामने मुंह दिखाने योग्य आप ही का शुभोद्योग बना दे तो बना दे। और लोग का तो इधर ध्यान ही नहीं। .....पंडित जी इस समय उर्दू के पक्षपाती बड़े घोर परिश्रम के साथ काम कर रहे हैं। उन्होंने उर्दू को बड़े ऊंचे आसन पर बिठा दिया है। कोई आवश्यकीय विषय ऐसा नहीं जिसकी दो चार पुस्तकें उर्दू में न हों, पर हिंदी में क्या है ? वही रद्दी उपन्यास या और कुछ भी। न मालूम हिंदी हितैषियों का ध्यान 'किधर है, जो अपने औचित्य को नहीं समझते। उर्दू को मुकाबले का चैलेंज और यह बेपरवाई। "विधाय वैरं सामर्षे नरोरौ य उदासते। प्रक्षिप्योदचिषं कक्षे शेरते- ऽभिमारुतम् ॥" (आचार्य महाबीर प्रसाद द्विवेदी को लिखा शर्मा जी की जुलाई ६ सन् १९०५ के पत्र से उद्धृत)। एक अन्य पत्र में आचार्य द्विवेदी की समालोचना-शैली की प्रशंसा करते