१७ पं० पसिंह शर्मा जी के पत्र द्विवेदी जी के नाम पुराना फाइल है। उसमें कई लेख बड़े उत्कृष्ट हैं। कहिए मकान से मंगाकर भेज दूं? विद्यालय कमेटी की ओर से आपकी उस चिट्ठी का फिर कुछ उत्तर गया? भवत्कृपाकांक्षी पद्मसिंह ओम् जालन्धर शहर १९-११-०५ श्रीमत्सु सादरं प्रणामाः ____कृपापत्र मिला। अनुगृहीत किया। यद्यपि मुझे यह मालूम नहीं था कि आप हाथ की बनी हुई ही पट्टी चाहते हैं। परन्तु मैंने यथासाध्य प्रयत्न वैसी ही पट्टी के लिये किया था, परन्तु वैसे रंग की और बारीक पट्टी न मिल सकी। लाचार मिल की बनी लेनी पड़ी। __ मुझे अफसोस है कि मैं आपकी इच्छानुसार, आपकी आज्ञा के पालन में अस- मर्थ रहा, यह-"प्रथमग्रासे मक्षिकापातः' हुआ। मैं २५ नवंबर को लाहौर जाऊंगा, वहाँ से आपके लिये टोपी भेजूंगा। पट्टी के हिसाब में आप और कुछ न भेजिए। कुछ आने ही और खर्च हुए हैं। 'हिसाबे दोस्तां दरदिल'। ठाकुर शिवरत्नसिंह जी अनुवाद की उतनी कीमत देने में अपनी असमर्थता प्रकट करते हैं और कहते हैं कि उन पुस्तकों के प्रचार से मेरा प्रयोजन धन कमाना नहीं है। यदि नागपुर वाले उन पुस्तकों का अनुवाद कराना पसन्द करें तो ठाकुर साहब भी कुछ सहायता दे देंगे। आपका समय बहुमूल्य नहीं किन्तु अमूल्य है। और ठाकुर साहब इतना रुपया नहीं दे सकते। इस दशा में क्या किया जाय? आपसे कुछ कमी के लिये प्रार्थना करना भी नितान्त असभ्यता है। मुझे अफसोस है कि मैंने इस विषय में आपको व्यर्थ तकलीफ देकर अपनी मूर्खता का परिचय दिया अस्तु, क्षमा कीजिए। विद्यालय कमिटी ने आपको न कुछ उत्तर दिया और न दे। ला० देवराज बड़ा दुरभिमानी, दुराग्रही और अर्थगृघ्न है। अजब तमाशा है जिस आदमी को जिस