पृष्ठ:द्विवेदीयुग के साहित्यकारों के कुछ पत्र.djvu/११९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

१०४ द्विवेदीयुग के साहित्यकारों के कुछ पत्र (२०) ओम् नायकनगला २१-४-०६ श्रीमत्सु सादरं प्रणामाः श्रीमान् का १४-४ का लिखा कृपापत्र सिकन्दराबाद से वापस आकर हमने पढ़ा। आनन्द हुआ। 'जाफर जटली' और 'चरकीन' आमतौर से बाजारों में नहीं बिकते। अश्लीलता के कारण शायद उनकी अशाअत बन्द है। आप किसी लखनऊ निवासी अपने मित्र को लिखिए, तलाश करने से लखनऊ में किसी के पास से अवश्य मिल जायंगे। मैंने भी आज अपने एक मित्र को लिख दिया है जो देहली के समीप रहते हैं, और देहली प्रायः आते जाते रहते हैं, यदि वहां कहीं पता लगा तो वह भेज देंगे। मेरठ और मुजफ्फरनगर के प्रान्त की देहाती भाषा का 'दलभीर" नामक एक दीवान तो मेरे पास है, कहिए भेज दूं? नागपुर की 'ग्रन्थमाला' के न निकलने का शोक है। परमात्मा करै, प्लेग पिशाच वहां से हट जाय । अंग्रेजी के एक 'हर्मिट' का अनुवाद कुछ दिन हुए विद्योदय' में श्लोकवद्ध निकला था। उसकी कथा बड़ी ही रोचक और उपदेशप्रद थी। शायद उसके कर्ता का नाम “पारनेल" है, उसकी कथा सरस्वती में देने योग्य है। उसे (अंग्रेजी में) कहीं से मंगाकर अवश्य पढ़िए और क्रमशः उसे सरस्वती में निका- लिए, अच्छी कथा है। 'अनस्थिता' का झगड़ा अब बहुत बढ़ गया, समाप्त भी कीजिए। इन लोगों का इसके सिवा कुछ और अभिप्राय मालूम नहीं होता कि इस प्रकार आपकी चित्त- वृत्ति को हटाकर सरस्वती के प्रकाशन में बाधा डाली जाय। महादुराग्रही इकट्ठे हो गये हैं। ये माननेवाले थोड़े ही हैं। सचमुच ये 'दिवाभीत' के भाई सरस्वती के प्रकाश को बरदाश्त नहीं कर सकते। इससे शोर मचाते हैं। बकने दीजिए 'या यस्य प्रकृतिः सतां वितनुताम्" किसी कवि ने इसी प्रकार के सौजन्य शून्य और अहम्मन्य लोगों के दुराग्रह से खिन्न होकर क्या अच्छा कहा है- "प्रकाममभ्यस्यतु नाम विद्यां सौजन्यमभ्यासवशोदलभ्यम् । कर्णो सपल्यः प्रविशालयेय विशालयेदक्षियुगं न कापि।" एक शिकायत है। आप जिस रोशनाई से लिखते हैं, वह इतनी कच्ची है कि उंगली का स्पर्श होते ही उड़ जाती है, बड़ी सावधानी से पत्र पढ़ना पड़ता