पृष्ठ:द्विवेदीयुग के साहित्यकारों के कुछ पत्र.djvu/१२७

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११२ द्विवेदीयुग के साहित्यकारों के कुछ पत्र दो तीन दिन में मैं उसे आपकी सेवा में भेज दूंगा। इस पुस्तक-वितरण कृपा के लिए मैं श्रीमान् को कोटिशःधन्यवाद देता हूं। 'शिक्षा' के संस्कृत अनुवाद का कुछ पता चला कि हुआ है या नहीं, और कहां 'मिलता है ? बराबर निवासी मराठी जाननेवाले एक महाशय यहां रहते हैं। वे कहते हैं 'कि पूना में 'बलवन्त गणेश दाभोड़कर' एक कम्पनी है। उसके यहां स्पेन्सर के प्रायः सब पुस्तकों का अनुवाद मराठी में छपा है। वहां से मराठी की शिक्षा भी मंगा कर देखिए और फिर एक सर्वोत्तम अनुवाद हिन्दी में प्रकाशित कीजिए। ला. नारायणदास जी को तो आपकी पुस्तकों का पारसल मुद्दत हुई मिल गया। मैंने अपने एक और (हलदौर-जि-बिजनौर निवासी) मित्र को आपकी 'पुस्तकें मंगाकर देखने की प्रेरणा की थी। उन्होंने वादा भी किया था कि अवश्य मंगाऊंगा। कृपया लिखिए कि वहां से कोई मांग गत मास में आपके पास पहुंची -या नहीं ? यदि न पहुंची हो तो लिखिए मैं उन्हें फिर लिखूगा । वे एक रसिक और धनाढ्य पुरुष हैं। अपनी वे सब पुस्तकें जो ला० नारायणदास जी के नाम भेजी हैं, 'ठाकुर शिवरत्नसिंह वर्मा कोट कृष्णचन्द्र, जालन्धरशहर, के नाम वी० पी० द्वारा भेज दीजिए। उक्त महाशय 'स्वाधीनता' पांच कापी (छपने पर) खरीदना चाहते हैं। कृपया उनका नाम उसके ग्राहकों की श्रेणी में लिखवा दीजिए। __ 'जब और तब' के विषय में आपका कथन ठीक है। परन्तु इस प्रकार के नियमों का निर्धारण करने के लिए हिन्दी में एक व्यापक व्याकरण की बड़ी ही जरूरत है। निःसन्देह यह काम बहुत से आदमियों के करने का है। परन्तु हिन्दी के लेखकों से यह आशा रखना कि वे मिलकर कुछ काम करेंगे दुराशा मात्र है। इसलिए हिन्दी 'भाषा के साहित्य को कतिपय उपयोगी विषयों से सुभूषित करके इसका व्याकरण आप ही बनाइए। हिन्दी भाषा के ये 'मत्सरी लेखक न कुछ करेंगे न करने देंगे। वेंकटेश्वर और भारतमित्र जहां जरा जरा सी रद्दी, निकम्मी और हिन्दी साहित्य को कलंकित करनेवाली किताबों की तारीफ में धरती आसमान के कुलाब मिला देते है, वहां हमने कभी भूलकर भी सरस्वती सी उपयोगी पत्रिका के विषय में उनके 'फूट मुंह और टूटी कलम से एक अक्षर निकलते भी न देखा? 'महिला मृदुवाणी' की समालोचना में सरस्वती की ही बातों का उल्लेख बेंकटेश्वर ने किया है। परन्तु सरस्वती का नाम नहीं दिया। शायद ऐसा करने से उसे पाप लग जाता? "सकल प्रबन्धहर्के साहसकर्त्रे नमस्तुभ्यम्" काशी ना० सभा तो थी ही परन्तु आरावाली उसकी भी गुरु निकली! उसने सरस्वती को वेद-विरोधी ही बतला दिया।