पृष्ठ:द्विवेदीयुग के साहित्यकारों के कुछ पत्र.djvu/१३६

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पं० पसिंह शर्मा जी के पत्र द्विवेदी जी के नाम १२१ इलहाम मयी पुस्तकें 'बड़ी रुचि' से पढ़ा करते हैं। "जमाले हमनशीं हदर मन् असर कदं" अगर पैगम्बर कादियानी में उनकी ऐसी ही 'श्रद्धा' और रुचि बनी रही तो क्या ताज्जुब है जो 'खुदायतआला' उन पर भी 'तजल्ली फरमा' होने लगे! ! कोई बात नहीं, जब अवकाश मिले 'योगदर्शन' पर आलोचना निकालिए, मतलब यह है कि भूल न जाइएगा। 'लज्जाः प्रौढमगीदशा" में उपमानोपमेय-विषयक 'लिंगभेद' तो प्रायः सर्वत्र ही है, पर 'प्रणपिता' पद ने लिंग भेद के अतिरिक्त 'वचन भेद' भी कायम करके पूरा 'लिंग-वचन-भेदात्मक-'भग्नप्रक्रमत्व' दोष का उदाहरण बना दिया, 'प्रणयिनः' पद रखने से यह दोष तो दूर हो जाता है, पर अर्थ विषयक दोष खड़ा हो जाता है, क्योंकि अस्थिरता या 'अचिर स्थायितो' में वारांगनाओं का 'प्रेम' ही बदनाम है। उनके 'प्रणयी' नहीं, वे बेचारे तो लोक-लज्जा, धन-वैभव आदि अपना सर्वस्व उनके रूपानल में होम कर भी प्रेमपाश से निकलना नहीं चाहते । अब आप उनकी सच्ची और पक्की वफादारी पर भी हर्फ लाना चाहते हैं ! आप ही सोचिए यह उनके साथ कितना जुल्म होगा? कहीं 'सरस्वती' में यह पढ़कर वह लोग खुदकशी न कर लें। क्योंकि- "सम्भावितस्य चाकीतिर्म णादप्यतिरिच्यते ।" अच्छा 'शरद' गई तो उन श्लोकों को भी जाने दीजिए, पर अभी शीत तो आ रहा है, इसलिए तद्विषयक एक आख्यायिका है, जो एक दरिद्र कवि और किसी राजा से सम्बन्ध रखती है । तद्यथा:- "शीतार्ता इव संकुचन्ति दिवसा नैवाम्बरं शर्वरी शीघ्र मुंचति किंच सोपिहुतभुक्कोणंगतो भास्करः।" त्वं चानंग हुताशभाजिहृदये सीमन्तिनीनांगतो नास्माकं वसनं न वायुवतयः कुत्र व्रजामोवयम् ?" 'कविता विषयक कुछ पद्य बहुत करके दिसम्बर में पढ़ने को तो मिलेंगे पर कौन से पद्य ? वे ही या कोई और? क्या उन्हें न निकालिएगा? अच्छा, आप चाहे निकालें या न निकालें हम अर्ज किए ही जायेंगे, और सुनिए- "व्यालाश्च राहुश्च सुधाप्रसांदाज्जिह्वा-शिरो-निग्रह मुग्नमापुः । इतीव भीताः पिशुना भवन्ति पराङ्मुखाः काव्यरसामृतेषु ॥" कृपापात्र 'पद्मसिंह