पृष्ठ:द्विवेदीयुग के साहित्यकारों के कुछ पत्र.djvu/१३९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

१२४ द्विवेदीयुग के साहित्यकारों के कुछ पत्र आपने ग्रहण की है, अबलाओं का दुःख चित्त पर अंकित करने के लिये वह बहुत ही श्रेष्ठ है। 'हृदयोच्छ्वास' के ५वें, पद्य के 'निन्दति कंचुककार' पद अर्थ यदि यह किया जाय तो कैसा:-'पति तपस्वनी या शुष्कस्तनी' होने के कारण कंचुकी ठीक नहीं आती ढीली आती है, इसलिये वह दरजी की निन्दा करती है कि कंचुकी ठीक नहीं सी, छाती पर कसकर नहीं आती" कंचुककार की जरूरत तो शुष्कस्तनी को भी वस्त्रान्तर के लिये हो सकती है। पूर्वार्द्ध में 'विपुल-हृदयाभि- योग्य' पद रखने से कवि का भाव ऐसा ही प्रतीत होता है। एक लोकोक्ति भी इसी प्रकार की है"नाच न आवे आंगन टेढ़ा।" १३वें पद्य के भाव का द्योतक एक फारसी का शेर है- गरबए मिस्की अगर परदाश्ते । तुरूम कुंजिश्क अज जहां पर दाश्ते। अर्थात् यदि बिल्ली के पंख होते तोचिड़ियों का बीज भी दुनिया में न छोड़ती। "बीतेनोद्धषितस्य माषशिमिवचिंतार्णवे मज्जतं" शान्ताग्नि स्फटिताधरस्य धमतः क्षत्क्षाम कण्ठस्य मे निद्रा क्वाप्यवमानितेव दयिता सन्त्यज्य दूरं गता सत्पात्रप्रतिपादितव वसुधा नक्षीयते शर्वरी।" राजतरंगिणी में इसी प्रकार पाठ है, इस श्लोक को क्षेमेन्द्र ने भी 'औचित्य-- विचारचर्चा' में इसी प्रकार उद्धृत किया है, वहां 'माषशिमिवत्' पर काव्यमाला सम्पादक पं. दुर्गाप्रसाद ने (?) यह चिह्न भी नहीं दिया, इससे प्रतीत होता है कि 'माषशिमि' कोई चीज है जरूर। यह श्लोक भी इस समय देने योग्य है- "कन्थाखण्डमिदं प्रयच्छ यदि वा स्वांके गृहाणार्भकं, रिक्तं भूतलमत्र नाथ! भवतः पृष्ठे पलालोच्चयः । दम्पत्यो रति जल्पतोनिशि यदा चोरःप्रविष्टस्तदा, लब्धं कर्पटमन्यतस्तदुपरि क्षिप्त्वा रुदनिर्गतः।" सौदा के शेर के साथ उस नैषधीय श्लोक को तथा इस प्रकार के श्लोक जो पहले भेजे थे, यदि उचित समझिए तो किसी संख्या में निकालिए। ___ 'शिक्षा' जब छपे तो उसके साथ हर्बर्ट स्पेन्सर का चित्र भी रहना चाहिए। 'अवधजम्बाल-पद्य को देखकर हमें श्री कण्ठचरित की याद आई, यदि आपके पास हो तो भेज दीजिए, हम उसे देखना चाहते हैं। पत्र नायकनगले भेजिए। -पसिंह