पृष्ठ:द्विवेदीयुग के साहित्यकारों के कुछ पत्र.djvu/१५३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

पं० पद्मसिंह शर्मा जी के पत्र द्विवेदी जी के नाम १३९ कलकत्ते के 'देवनागर' देखने की हमारी इच्छा है, यदि उसके द्वारा 'बंगला' या मराठी में हमारा कुछ प्रवेश होने लगे तो हम उसे मंगाने लगें, कृपया उसके दो 'एक नम्बर भेजिए। इधर वर्षा न होने से प्रबल दुर्भिक्ष होने की पूरी संभावना है, उधर क्या दशा है? कृपापात्र पद्मसिंह ओम् नायकनगला ११-११-०७ 'श्रीयुत श्रद्धास्पदेषु सादरं . प्रणामाः आपका ३० सितम्बर का पत्र पाने के पीछे मैं फिर पहली सी ही आपत्ति में 'फंस गया, और अबतक फंसा हुआ हूँ, इसी से आपको पत्र न लिख सका, न मालूम 'अभी कब तक यह स्थिति रहती, परन्तु नवम्बर की 'सरस्वती' ने यह पत्र लिखने के लिए मजबूर कर ही दिया। जिस दिन 'सरस्वती' की यह संख्या मिली मेरे हाथ में असह्य पीड़ा थी (अबके बायें हाथ में है) परन्तु इसके हाथ में लेते ही पीड़ा की विस्मृति होने लगी, और जब मैं उस स्थान पर पहुंचा, जहां आपने दीक्षित जी के हेतुओं का खण्डन करते हुए, शान्ति 'अशान्ति' पर लिखा है तो आपके लेख की सत्यता की साक्षी मेरा तात्कालिक अनुभवही देने लगा। कवियों का तो कहना ही क्या है, उनके लेखों को पढ़नेवाले भी अपनी पीड़ा को भूल सकते हैं। दीक्षित “जी का वह हेतु वास्तव में कुछ नहीं, उसके विरुद्ध आपके लेख की पुष्टि में बहुतसे "उदाहरण 'आबेहयात,' 'यादगारेगालिब' और 'हयातेसादी' से मिल सकते हैं। अस्तु। ____ अब तो सरस्वती कई महीने से मास के प्रारंभ में ही दर्शन देने लगी है, इसके लिए आपको और प्रकाशक को बधाई है। 'शंकरानन्द' के शास्त्रि-परीक्षोर्तीर्ण होने का हाल पढ़कर हमें भी आश्चर्य हुआ, शंकरानन्द को मैं खूब जानता हूँ। मेरी कांगड़ी की स्थिति के समय यह वहां 'था, उस समय इसमें कुछ वैलक्षण्य नहीं था, जैसी इसके साथियों की दशा थी