पृष्ठ:द्विवेदीयुग के साहित्यकारों के कुछ पत्र.djvu/१५८

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१४४ द्विवेदीयुग के साहित्यकारों के कुछ पत्र (४९) नागकनगला २८-१२-०७ श्रीमत्सु परमश्रद्धास्पदेषु प्रणतयः कृपापत्र मिला, 'सरस्वती' के लिए विज्ञप्ति भी मिली, यों तो यदि 'सरस्वती' का मूल्य १०) हो तो भी कम है पर हिन्दी पढ़नेवाले इस एक रुपये के बढाने को अधिक ही समझेंगे, गालिब का एक शेर है- "बोसा देते नहीं और दिल पै है हर वक्त निगाह, जी में कहते हैं कि मुफ्त आए तो माल अच्छा है।" __'सरस्वती' के स्वामी वास्तव में बड़े प्रशंसाह हैं, जो बंगाली होकर भी हिन्दी के लिये इतना कुछ कर रहे हैं। देखिये इस वर्ष कितने ग्राहक रहते हैं। . हिंदी के पत्रों का मात्सर्य तो प्रसिद्ध ही है, वे भला 'सरस्वती' के विषय में काहे को कुछ लिखने लगे हैं, बहुत से लोगों को उसकी नकल करने की तो सूझी है, पर यह किसी से नहीं होता कि उसके ही प्रचार में सहायता दें, जब भला 'सरस्वती' जैसी पत्रिका आपकी संपादकता और इन्डियन प्रेस की सहायता में ही यथेष्ट उन्नति नहीं कर सकी, तब फिर यह 'कमला' 'विमला' क्या खाक चलेंगी? यदि मेरे अधीन कोई समाचारपत्र हो तो मैं 'सरस्वती' के विषय में एक लेख क्या हमेशा उसमें लिखा करूं, सद्धर्म प्रचारक में तो इस विषय में मैं कुछ लिखना उचित नहीं समझता पर एक दूसरे पत्र के सम्पादक को लिखूगा। सतसई की समालोचना में मैं उन सब बातों पर ध्यान रखूगा जो आपने लिखी मेरा विद्यावारिधि जी से कोई वैर नहीं, किसी प्रकार का द्वेष नहीं, परमात्मा साक्षी है, सतसई की दुर्गति पर मेरा दिल पसीज आया जिससे मैं कुछ लिखने लगा हूँ, नहीं तो कुछ जरूरत न थी। आप जानते हैं कि मैं कोई समालोचक तो हूँ नहीं और यह मेरा पहिला ही प्रयत्न है, इसलिए लेख में बहुत सी त्रुटियाँ रहेंगी, सो यदि, आपके दुरस्त कर देने पर वह 'सरस्वती' में देने योग्य हो जाय तो दें अन्यथा नहीं। सतसई का वह उर्दू पद्यमय अनुवाद जिसकी समालोचना आपने एक बार "सरस्वती' में की थी, यदि आपके पास हो तो अवश्य भेजने की कृपा कीजिए अन्यथा उसका पता दीजिए, कहाँ से मिल सकेगा। - मेरे एक मित्र आपका 'तरुणोपदेश' देखने के लिए बड़े उत्सुक हैं, वह इस विषय में मुझे कोई एक दर्जन पत्र लिख चुके हैं, क्या उनकी इच्छा पूर्ण हो सकती है?