पृष्ठ:द्विवेदीयुग के साहित्यकारों के कुछ पत्र.djvu/१६०

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१४६ द्विवेदीयुग के साहित्यकारों के कुछ पत्र 'उर्दू सतसई' के कुछ पद्यों की आलोचना 'सरस्वती' के किस वर्ष में निकली थी। यदि फाइल से इसका पता चल जाय तो कृपया लिखिए। सन् ०५ से अवतक का फाइल तो मेरे पास है। 'परपवादशंकिता' के उदाहरण में (जगद्विनोद में) पद्माकर का एक बहुत ही सरस कवित्त है, उसके कुछ पदों का अर्थ और भाव हमारी समझ में नहीं आया। यथा- "मोहिं लखि सोवत बिथोरिगो सुबेनी बनी तोरिगोहियै कोहरा छोरिगो सुगैयो को, कहै पद्माकर त्यों घोरिगो घनेरो दुख बोरिगो बिसासी आज लाज ही की नैया को। अहित अनसो ऐसो कौन उपहास यह सोचत खरी मैं परी जोवत जुन्हैया को, बुझेंगे चवैया तब कहों कहा दैया इत पारिगो को मैया मेरी सेज पै कन्हैया को॥" इसके रेखांकित पदों का अर्थ लिखिए। भाषा का एक महावरा है- __"इसमें आपका क्या निहोरा है।" इसका क्या अर्थ है ! यही न कि इसमें आपका अहसान है? या 'मैं तुम्हारे निहोर करता हूँ' अर्थात् खुशामद करता हूं।' या कुछ और! बिहारी का एक दोहा है- "अपनी गरजनि बोलियत कहा निहोरो तोहि। तू प्यारा मो जीय को मो जिय प्यारा मोहि ॥" यह कलहान्तरिता की उक्ति (रोष की शान्ति तथा औत्सुक्य भावोदय पर) है, यहां 'कहा निहोरो तोहिं' का क्या अर्थ है ?' तुम्हारा कुछ अहसान नहीं।' यह तो यहां ठीक नहीं।' तुम पर कुछ अहसान नहीं या तुम्हारी (ओर से) खुशामद की जरूरत नहीं इनमें से कोई अर्थ यहाँ हो सकता है ? बिहारी का एक और दोहा है- . “कहा लड़ते दृग करे परे लाल बेहाल। __कहुं मुरली कहुं पीतपट कहूं मुकुट बनमाल॥" यह कृष्ण की विरहदशा का वर्णन सखी नायिका से कर रही है।