पृष्ठ:द्विवेदीयुग के साहित्यकारों के कुछ पत्र.djvu/१६२

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१४० द्विवेदीयुग के साहित्यकारों के कुछ पत्र ओम् रिप्लाइड नायकनगला २३।१।०८ १८-१-०८ श्री मान्यवर महोदयेषु प्रणामाः ९-१ का कृपापत्र आज रात्रि के ८ बजे मिला है, डाकघर से दूर गांव में रहने की यह सजा है। पं० रलाराम का पत्र भी अभी आपके पत्र के साथ मिला है, वह किसी अनिवार्य कारण से रुक गये, अब दस बारह दिन में गायद जायं। . "ला. देवीदयालु मुन्निफ' दरख्त ‘फलफूल' आदि, जालन्धर छावनी; यह उनका पता है, उन्हें अंग्रेजी में पत्र लिखिए, अथवा मैनेजर 'इम्पीरियल बुकडिपो चांदनी चौक, देहली को लिखिए, उनकी सब किताबें वहीं मिलती हैं। पत्र में सोमलता का उल्लेख कर दीजिए, उससे किताब का पता चल जायगा। किताब का नाम मुझे विस्मृत हो गया। पं. भीमसेन जी तो उस सोमलता को असली बतलाते थे, उसे बा० ब्रह्मा नन्द जी (जो इस समय कांगड़ी गुरुकुल में हैं) अपने किसी मित्र की सहायता से (जो कि रियासत रीवां में एक उच्च पद पर थे) लाये थे। उसके विषय में आप पं० भीमसेन जी या बा० ब्रह्मानन्द जी से पूछ सकते हैं। ___'उर्दू सतसई का पता मैंने अपने एक मित्र के पास 'सरस्वती' के फाइल में ढूंढ कर पा लिया था, आपने लिखा तदर्थ धन्यवाद। मालूम होता है वह अभी छपी नहीं, अन्यथा पत्रों में उसकी आलोचना निकलती। पद्माकर के पद्य के अर्थ के लिए धन्यवाद। पर “सोचत खरी मैं परी जोवत जुन्हैया को" में "चन्द को देखते हुए" से क्या अभिप्राय ? क्या यह “परी जोवत जुन्हैया को" पद सिर्फ शब्दा- लंकार के लिए ही रखा गया है? हर्ष की बात है कि निहोरा' और 'लड़ते' के अर्थ के विषय में आपकी और हमारी . राय मिल गई, जब आपने पुष्टि कर दी तब तो हम जरूर वही अर्थ करेंगे। रविवर्मा आदि के चित्र पुस्तकाकार अवश्य छपाइए। उस पुस्तक के साथ मेरा भी नाम रह जाय। भला यह मेरा भाग्य कहां? जी तो चाहता है कि आपके कदमों में मैं भी लिपटा पड़ा रहूं, पर यह हो कैसे? "तेरा दरबार शाहाना मेरी सूरत फकीराना।" कविता तो क्या मैं तो साधारण तुकबन्दी भी नहीं करना जानता, यदि गद्य का मामला होता तो खैर टूटी फूटी कुछ इबारत लिख भी देता।