पृष्ठ:द्विवेदीयुग के साहित्यकारों के कुछ पत्र.djvu/१८४

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१७० द्विवेदीयुग के साहित्यकारों के कुछ पत्र इस महीने की 'सरस्वती' जिसके अंत में रामजी लाल का मनोरंजक पद्य था, मास के प्रारंभ में ही निकल चुकी थी, वह हमने सहारनपुर में ही पढ़ी थी, सहारन- पुर में वह आर्यादेवी के पास जाने लगी है, जिनके पास भिजवाने के लिए मैंने आपसे लिखवाया था और वी० पी० किसी कारण से लौट गया था। उन्होंने फिर जारी करा लिया है। हां, शंकर जी कांटछांट से खिन्न हैं। उन्हें यह भी शिकायत है कि इतने आग्रह- पूर्वक मंगाने पर भी उनका फोटो 'सरस्वती' में नहीं निकला और वह कविता- -कलाप के ग्रूप के लिए रख छोड़ा। यह तो मेरी राय भी है कि उनका फोटो 'सरस्वती' में अवश्य निकलना चाहिए था और शीघ्र निकलना चाहिए था, वह इसी वादे पर उनसे मंगाया भी गया था। 'सरस्वती' में निकल कर भी वह “कलाप" में दिया जा सकता है। ऐसी जरा जरा सी बातों पर शिकायत का मौका नहीं देना चाहिए- “छन्दानुवृत्तिदुःखसाध्याः सुहृदो विमनीकृताः"-यह तो हम जानते हैं कि आप महाकवियों तक की परवाह नहीं करते पर मित्रता के नाते ही नाजोनखरे बरदास्त किये जाइए। पूने वाले पुस्तक का पता न चलने का सख्त अफसोस है, याद रखिए, शायद पुराना पता हाथ आ जाय। पतन्दर या 'पितन्दर' पंजाबी शब्द है, हमारी तरफ भी बोला जाता है, इसका अर्थ है, "पितरों के पितर" दादा परदादा' जैसे कहते हैं-"तुम्हारें' 'पतन्दर' से भी यह काम न होगा, तुम तो क्या चीज हो" पर यह 'महावरा' लुच्चे और शोहदे लोग बोला करते हैं, पंचपत्र के लिए यह नाम अच्छा है। क्या पतन्दर आपके पास भी पहुंचा है? लक्षण तो ऐसे ही हैं कि वह धर्मपिता के भी हंटर लगाये बिना न रहेगा। धर्मपुत्र ने धर्मपिता को 'तलाक' दे दी, और उन्हें बढ़ापे में निराश्रय छोड़ दिया। ___ अब महात्मा महाशय भोगी व 'मन्त्रौषधीरुद्धवीर्यः" बन रहे हैं, बुरी बीतती है, रिआया बागी हो गई है। 'सूनृतवादिनी' ने 'भारतोदय' की विचित्र समालोचना की है, उसे इसके लेखों से सनातन धर्मानुयायियों के हृदय पर आघात का सदमा उठाना पड़ा है, यह उसका खयाल 'प्रकृतिस्तव' को पढ़कर हुआ है, आपके पास पहुंची हो तो १२।६।०९की संख्या में देखिए तो सही (३ पृ० के अंतिम कालिम की अन्तिम टिप्पणी) अस्तु 'अफ- सोस है जिस बात से बचने की हमने सख्त कोशिश की उसी के लिए उलाहना सुनना पड़ा और वह भी ऐसे विद्वान से इसी का रंज है।