पृष्ठ:द्विवेदीयुग के साहित्यकारों के कुछ पत्र.djvu/१८७

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पं० पसिंह शर्मा जी के पत्र द्विवेदी जी के नाम १७३ "गुरुतामुपयाति यन्मृतः..." 'लघुतामुपया०" इस दशा में तो उत्तरार्द्ध से कुछ संबंध ही नहीं रहता। पहले श्लोक के नीचे के शेर में 'शहवत' का 'शहबत' . हो गया। ___ छठे, पद्य का अर्थ अधूरा रहकर खास बात जाती रही।"......हँसते हैं" के आगे "और तू रोता है-"(तो गिरयां)... जरूर चाहिए था, इसके बिना लुत्फ जाता रहा। ___ अब, हमें २-३ महीने के लिए बाहर डिपुटेशन में जाना है, पंजाब, हैदराबाद सिंध, कराची होकर राजपुताने और गुजरात में जायंगे, ५-६ दिन में कूच होनेवाला है, आशा है आप कुशल से होंगे। कृपापात्र पद्मसिंह शर्मा (७४) म. वि०, ज्वालापुर ७-८-०९ मान्यवर पं० जी प्रणाम कृपापत्र मिला। पुस्तक भी पहुंचा । काम हो जाने पर अवश्य लौटा दूंगा। व्यास जी ने स्वर्ग सभा, सब्जेक्ट कमेटी के उत्तर में ही लिखी है पूर्व नहीं। आप भूत प्रेतों के पीछे बुरी तरह पड़े हैं, मुश्किल से यह ऊतभूतों का बखेड़ा दूर हुआ था, आप उसे फिर बुलाकर रहेंगे। कृपया इस रोचक पर भ्रमात्मक विषय की चर्चा 'सरस्वती' में कम किया कीजिए। यह आपकी भूतचर्चा बहुत से लोगों के संस्कारों को ताजा कर रही है। भूले हुए ख्याल को वापस ला रही है। आंखें अभी कुछ कुछ अच्छी हुई हैं बिलकुल नहीं? बहुत दुखी ? यदि स्वास्थ्य बिगड़ने लगा तो फिर घर लौट जाइए, या कहीं अन्यत्र रहिए। इस साल कोई नई किताब न लिखिए। कृपाकांक्षी पद्मसिंह शर्मा क्या छबीलेलाल को जी० च० की सामग्री नहीं भेज दी। पद्मसिंह शर्मा