पृष्ठ:द्विवेदीयुग के साहित्यकारों के कुछ पत्र.djvu/२००

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१८६ द्विवेदीयुग के साहित्यकारों के कुछ पत्र मैं आपके लेख से अब भी सहमत हूँ। इस विषय में आपका अणुमात्र भी अपराध नहीं समझता, आपने वही किया है जो पहले साहित्यवेत्ता करते आये हैं, और प्रायः पुरानी उक्तियों को ही दोहराया है। परंतु कालिदास में बढ़ी हुई भक्ति ने मुझे निरंकुशता की पुष्टि में लिखने से रोका, इच्छा होने पर भी हृदय से प्रेरणा नहीं हुई कि कुछ लिखू, इसीलिए अपना हृदयस्थ भाव साफ साफ लिख देने के लिए आपसे माफी मांगी थी। यह सच है कि आपने मेरे हृदयस्थ भाव के विषय में कभी शंका नहीं की, परंतु भारतोदय के 'तीष्ण' कटु पुंडियावाले नोट पर समुचित दंड मिल जाने के कारण मैंने यह समझ लिया था कि आपको मेरे हृदयस्थ भावों पर शंका होने लगी है, "सेव्योजनश्च कुपितः कथन्नु दासो निरपराधः” (निरंकुश-कालिदास) । ___ आपने भारतोदय को दंड देने का कारण लिखते हुए "दुश्मन दाना बेहअज दोस्तनादान' लिखकर सेवक को 'नादान दोस्त' ठहराया था, अतः उसने 'नादान सेवक' वनकर कोई भारी भूल नहीं की। आपका वही 'नादान सेवक पद्मसिंह शर्मा (८६) म० वि० ज्वालापुर २८-९-११ श्री माननीय द्विवेदी जी महाराज प्रणाम आशा है आप प्रयाग से वापिस आ गए होंगे, क्या आप भी सम्मेलन में शरीक हुए थे? गीता के चित्रों के विषय में कुछ निश्चित हुआ? कोई पसंद आया ? खबर मिली थी मिस्टर सत्यदेव आपसे सुलह करने तशरीफ ले गये थे, क्या यह ठीक है ? सुलह हो गई? कोई कहता था कि मि० देव गुप्त रूप से या प्रकाश रूप से मर्यादा के संपादक नियत हुए हैं ? एवमेतत् ? इससे पूर्व का पत्र पहुंचा होगा। आज एक और कटिंग भेजता हूँ, यह छोकरा बेतरह सिर हुआ है, कनेठी की जरूरती है।