पृष्ठ:द्विवेदीयुग के साहित्यकारों के कुछ पत्र.djvu/२१५

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पं० श्रीधर पाठक जी के पत्र द्विवेदी जी के नाम २०१ ५. अगर दो चार कापियां "आ० शो." की आप कानपुर में बंटवा सकें तो भेज दी जायं-तकलीफ दिट्ट मुआफ़ कीजियेगा- कृपैषी श्रीधर पाठक या ६२ श्री प्रयाग श्रावणी १९६१ मित्रवर ता० १३ का पो० का० प्राप्त- आप तो कुछ खफा से हो चले! मैं मुआफ़ी माँगता हूँ-मित्रों में विवाद' उठना सचमुच अनुचित है- मैं आपके पत्र की उन्नति की नीयत से मित्रता की रीति पर आपको दो एक बातें सुझाने का अभिलाषी था-आपसे विरोध खड़ा करना मेरा अभिप्राय न' था-जो बातें किसी व्यक्ति की समझ में जम कर मत रूप हो गयीं हैं उन्में यदि' किसी दूसरी व्यक्ति के द्वारा किसी प्रकार के परिवर्तन का प्रस्ताव हो तो वह प्रथम अवश्य असह्य होता है प्रकृत्या पर मैं समझता हूँ कि जहां शुद्ध सौहार्द्र प्रसूत' अभिन्न हृदयता रहती है वहां उक्त कक्षा की असह्यता उत्पन्न नहीं होने पाती- ___ यदि हमारा आपका विवाद प्रकाशित होगा तो हमारे आपके मैत्री भाव में अवश्य "जोखिम" आवेगी-अतः विवाद वृद्धि अवांछनीय है-हमें अवकाश मिलेगा तो भा० मि० द्वारा आजकल की लेख प्रणाली के सबन्ध में हम अपने भावों को साधारण रीति से प्रकाशित करने की अचिरात् चेष्टा करेंगे। कृपषी श्रीधर पाठक टिप्पणी-यह मूल पत्र की प्रतिलिपि है। गलतियों को भी जयों का त्यों रहने दिया गया है। सं० .

  • भारत मित्र