पृष्ठ:द्विवेदीयुग के साहित्यकारों के कुछ पत्र.djvu/२२४

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२१० . द्विवेदीयुग के साहित्यकारों के कुछ पत्र आपसे मेरी ओर से उल्टी या सीधी जो विनय होती सब शुद्ध मन से भक्तिभाव से होती है। २८ का कार्ड मिला। जो पत्र आपने कलकत्ते भेजा है उसे मेरा सहकर्मी खोलेगा। मुझसे कुछ पूछना होगा पूछेगा नहीं तो तामील करेगा। हमारी मंडली भर आपकी भक्त है। जुबानी सब कहूंगा। आज नया संवत् है उसकी प्रणाम हाथ जोड़ कर निवेदन करता हूँ। दास बालमुकुन्द पं० श्रीधर पाठक जी को कलकत्ता ता०१७-९-००. पूज्यवर प्रणाम आपके १५ अगष्त के पत्र का आज उत्तर देता हूँ। इसी सप्ताह में कलकत्ते पहुंचा है, महामंडल आदि में एक मास से अधिक लग गया। आपको अखबारों से प्रेम नहीं है सो ठीक है। भारतमित्र खरीदने का मैंने आपसे अनुरोध नहीं किया क्योंकि आपकी सेवा में बेदाम जाना ही उसकी इज्जत था। परन्तु आपने दाम भी भेज दिया था और मैनेजर ने जमा भी कर लिया था इसी से आपका नाम ग्राहकों में था। तकाज़ा करने वाला वलर्क औरों के साथ आप पर भी तकाज़ा कर गया। वह तो आपसे परिचित न था। हाँ लिखने का अनुरोध मैंने किया था और आप कृपा कर लिखने लगे इसका मैं हृदय से धन्यवाद करता हूँ। आपका जी इतना कच्चा है कि उसमें हरदम सन्देह उठते हैं और आपको यही ख्याल हो जाता है कि सब दोष बालमुकुन्द करता है और जानबूझ कर करता है। रही दाम देकर लिखाने की बात सो हिन्दी के भाग्य में अभी यह बात नहीं है । अंग्रेजी अख्बारों के भाग्य में और हिन्दी अख्बारों के भाग्य में सोने और मिट्टी का फर्क है। २ रु० के भारतमित्र को भी खरीदार चाव से नहीं खरीद सकते हैं। आपकी कविता ही को सौ मैं दो भी समझने वाले नहीं । ऐसी हीन दशावाली हिन्दी पर आपको दया ही चाहिये। मालिक और मैनेजर का भी तकाज़ा करने में कसूर नहीं है। क्योंकि उनको भी मालूम न था कि क्लर्क ने कब आपको तकाज़ा लिख मारा। असल कसूर मेरा है कि मैंने क्लर्क को कह न रक्खा था आपका नाम आंवे तो तकाजा न भेजना। ' परन्तु अबक्लर्क जान गया और उस नाम पर लाल निशान कर दिया है।