पृष्ठ:द्विवेदीयुग के साहित्यकारों के कुछ पत्र.djvu/६८

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द्विवेदी जी के पत्र ना०प्र० सभा तथा डॉ० श्यामसुन्दर दास जी के नाम ५३ यहाँ का संग्रह कुछ अच्छा नहीं। अधिकांश रद्दी है । पर जो है, हाजिर है। बहुत पुस्तकों के पुठे टूट गए हैं। बहुतों को चूहे खा गए हैं। आप चाहें तो मरम्मत करा लीजिएगा। अब तक ७ बक्स भरे गए हैं। अभी तीन चार अलमारियां और भरी पड़ी है। हस्तलिखित सामग्री तो सभी पड़ी है, यह सब अब मेरे लौटने पर उठवाइएगा। मैं परसों चला जाऊँगा जो जाने लायक हुआ। सूची ठीक ठीक नहीं बनी। हिंदी में मराठी, और संस्कृत में हिंदी आदि की किताबें मिल गई हैं। किसी बहुज्ञ से किताबें देख देख कर फिर बनवाइएगा और एक कापी मुझे भी भेजिएगा। हिंदी-संस्कृत में हो सके तो विषय के अनुसार पुस्तकें अलग कर दीजिएगा। पं० गौरीशंकर ओझा जी की पुस्तक प्राचीन लिपिमाला कहीं थी। सूची में नहीं मिलती। देख लीजिएगा, वहाँ पहुँचती है या नहीं। पुस्तकें यहां बाहर बरांडे में रात को पड़ी रहती रही हैं। अब तक ११६७ पुस्तकें निकाली गई हैं। उनमें से सौ डेढ़ सौ मासिक पुस्तकों की फाइलें ही होंगी। हिसाब-हिंदी ६५८, अंगरेजी २८१, संस्कृत ८६, उर्दू ५९ बंगला ५१, मराठी २४, गुजराती ८। शायद सौ पचास और निकाली जा सकें। जो रेल वाले माल लेंगे तो कल रवाना हो जायगा नहीं वा० सहाय को ठहरना पड़ेगा। उन्हें वहां बुलाकर उनसे पुस्तकें संभाल लीजिएगा। दौलतपुर का संग्रह इससे अच्छा है। पुस्तकें सुन्दर सजाने लायक हैं। उन्हें अभी वहीं रहने दीजिए। मुझ अनाथ की नाथ वही हैं। वहाँ यदि किसी से प्रेम है तो उन्हीं से है। उन्हीं को देखकर किसी तरह कालयापन कर देता हूँ। कुछ काम भी निकलना है। पुराणादि पढ़ता हूं। फिर भी कुछ और बढ़ने पर उन्हें भी भेज दूंगा । वसीयतनामें में लिख भी दिया है कि संग्रह किसी सर्वसाधारण संस्था को दे दिया जाय । अब आप ही का हक है। और कोई न पावेगा। आपका म०प्र० द्विवेदी . बाबू श्यामसुन्दरदास (८) जुही-कलां, कानपुर १५-११-२३ आशीष कल चिट्ठी भेज चुका हूँ। रात को वीरोनल खाने से कुछ नींद आई। आज तबीयत हलकी है।