पृष्ठ:द्विवेदीयुग के साहित्यकारों के कुछ पत्र.djvu/७३

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द्विवेदीयुग के साहित्यकारों के कुछ पत्र (४) दौलतपुर (जिला रायबरेली) २६ फरवरी, ३६ भाई मेरे शाही कागज पर आपका २२ फरवरी का पत्र मिला। मेरा नतमस्तक अभि- . वादन स्वीकार कीजिए। आपने जो कुछ लिखा तदर्थ मैंने अपने को धन्य समझा धन्योस्मि कृतकृत्योऽस्मि कृतार्थोऽस्मि दयानिधे॥ मेरा शरीर जर्जर है। चल फिर कम सकता हूँ। आंखें भी दूर की चीज नहीं 'देख पातीं, दिमाग खाली है। उन्निद्रता (इन्साम्निआ) किसी तरह पिंड नहीं छोड़ती। रात को चारपाई पर ही हाजते रफा करनी पड़ती हैं। कई रोज नींद न आने पर मेडिनल नाम की 'एक विषाक्त औषधि खानी पड़ती है। मैं अब कहीं बाहर जाने योग्य नहीं रहा। मेरी आत्मा अन्यत्र जाने की तैयारी में है। ईश्वर से मेरे लिये प्रार्थना कर दीजिए कि अब अधिक यातनाएँ न भोगनी पड़ें। कई मित्रों का आग्रह है कि मैं कुछ दिनों के लिये स्थान परिवर्तन कर दूं। वे मोटर पर मुझे कानपुर या लखनऊ ले जाना चाहते हैं। पर मैं घर छोड़ने का साहस नहीं कर सकता। मैं आपका और आपके प्रांत के साहित्यप्रेमियों का अत्यन्त कृतज्ञ हूँ। पर मुझमें अब उस पद को ग्रहण करने की शक्ति नहीं। अतएव मेरी प्रार्थना है कि मैं क्षमा किया जाऊँ। सुकवि में प्रकाशित आपके काव्य के कई अंश मैंने देखे हैं। बड़ी सुन्दर और सरस रचना है, काव्य के गुणों से यथेष्ट अलंकृत है। भगवान करे आपकी प्रतिभा का विकास अधिकाधिक होता जाय। श्रीमान राजा साहब पर मेरी हार्दिक कृतज्ञता प्रकट कर दीजिएगा। यह श्लोक भी उन्हें सुना दीजिएगा- लक्ष्मीस्ते पंकजाक्षी निवसतु भवने, शारदा कण्ठदेशे बर्धन्तां बन्धुवर्गाः सकलरिपुगणा यान्तु पातालमूले। देश-देशे च कीर्तिः प्रभवतु भवतां कुन्दपूर्णेन्दुशुभ्रा। जीव त्वं पुत्रपौत्रैः परिजनसहितैः पूर्णमायुः शताब्दम् ॥ कृपापात्र महावीरप्रसाद द्विवेदी