पृष्ठ:द्विवेदीयुग के साहित्यकारों के कुछ पत्र.djvu/८

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भूमिका किसी महान् साहित्यिक के वास्तविक व्यक्तित्व की जानकारी के लिए उसकी साहित्यिक कृतियाँ जितनी उपादेय हैं, उनसे कहीं अधिक उपादेय उसके वैयक्तिक पत्र है। प्रत्येक व्यक्ति अपने जीवन में अपने इष्ट-मित्रों, परिचित व्यक्तियों आदि को पत्र लिखता है। इनमें विचित्र प्रकार के विषयों के पत्रहो सकते हैं-जीवन की जटिल समस्याओं से संबद्ध पत्र, रोजमर्रा के काम-काज के पत्र, व्यावसायिक घंधों से संबद्ध पत्र या किन्हीं दार्शनिक, साहित्यिक, कलात्मक अथवा राजनैतिक पहलुओं से संबद्ध पत्र। किसी साहित्यिक कृति में कृतिकार का रूप प्रकट तो होता है, किन्तु वह कला एवं कल्पना के पर्दे के पीछे छिपकर आता है, जब कि पत्रों में उसका असली रूप दिखाई पड़ सकता है, बशर्ते उसके पत्र-लेखन में ईमानदारी बरती गई हो। जो लोग अपने जीवन में 'दुहरे व्यक्तित्व के अभ्यासी हैं, उनके पत्रों में बनावटी- पन हो सकता है, उसमें वह निश्छल, अनाविल, भावप्रवाह, 'दिलको कलम के सहारे कागज पर रख देने की प्रवृत्ति भी नहीं पाई जाती। यह दूसरी बात है कि कोई दक्ष मनोवैज्ञानिक उनकी इन कृत्रिम पत्रावलियों से भी उनके असली चरित्र का अनुमान करने में सफल हो जाय। यही कारण है कि पत्र-लेखन-कला के पार- खियों ने पत्रों का महत्व किसी व्यक्ति के काव्य से भी किसी अंश में अधिक माना है। पत्र भी कविता की भांति ही हृदय के उद्गार है, जहां पत्र-लेखक अपने हृदय को उंडेल कर रख देता है। पर हर एक व्यक्ति में यह क्षमता नहीं होती, प्रत्येक व्यक्ति को यह कला नहीं प्राप्त होती कि वह पत्र पर अपने हृदय को रख सके। • इसीलिए पत्र-लेखन को भी 'कला' माना जाता है। अपने लेख “पत्र-लेखन-कला" में श्री बनारसीदास चतुर्वेदी ने पत्र-लेखन की अकृत्रिमता तथा निश्छलता पर पूरा जोर देते हुए लिखा है :- "पत्र-लेखन-कला पर अधिक लिखने के पहले एक बात स्पष्ट कर देने की आवश्यकता है, वह यह है कि जो आदमी बजात खुद अच्छा नहीं है, वह अच्छा 'पत्र-लेखक हरगिज़ नहीं बन सकता। कृत्रिम ढंग से लिखे हुए पत्रों की पोल बड़ी आसानी से खुल जाती है । जिस तरह कोई कुशल व्यापारी रुपये को हाथ में लेते ही खरे-खोटे सिक्के की पहचान कर लेता है उसी तरह किसी सुसंस्कृत आदमी के