पृष्ठ:द्विवेदीयुग के साहित्यकारों के कुछ पत्र.djvu/८२

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श्री पं० हरिभाऊ उपाध्याय जी के नाम डाकखाना दौलतपुर, रायबरेली ४ मार्च, १९२८ श्रीमत्सु सादरं निवेदनमिदम् ___ आप बहुत बड़े देशभक्त, मातृभाषा के हितैषी और परमोदार ही नहीं, परो- पकार रत भी है। अतएव नीचे की कुछ सतरें पढ़ लेने की कृपा कीजिए। जब मैं कानपुर के बाहर जुही में रहता था तब एक बार आपने मुझ अकिंचन पर कृपा की थी। सम्भव है, आपको मेरा स्मरण बना हो। इसी से मुझे आपको कष्ट देने का साहस हुआ है, क्योंकि 'शाखिनो अन्ये विराजन्ते खंडयन्ते चन्दनप्रभाः' मैं ६५ वर्ष का हुआ। २० ही वर्ष की उम्र से मैंने हिन्दी लिखना शुरू किया था। वह काम अब तक जारी है। मेरी लिखी तथा अनुवादित पुस्तकों की संख्या ५० के लगभग है। कोई २० वर्ष तक सरस्वती का सम्पादन किया। उस काम को, वार्धक्य के कारण छोड़े पांच छः वर्ष हुए। इंडियन प्रेस से यद्यपि मुझे कुछ पेंशन मिलती है, तथापि उतने से काम न चलते देख मेरे कुछ मित्रों ने सलाह दी कि मैं अपने फुटकर लेखों के संग्रह पुस्तकाकार प्रकाशित कराऊँ । उनकी भिन्न-भिन्न विषयों की कोई ३० पुस्तकें हुई । आशा है कि बाबू शिवप्रसाद जी गुप्त ने उनके नकल कराने का प्रवन्ध अपने खर्च से करा दिया। २५ पुस्तकें नकल हो गई। पांच छ: नकल हो रही है। इनमें से भिन्न भिन्न प्रकाशकों ने १४ पुस्तकें प्रकाशित भी कर दीं। ४ छपने को गई हैं। बारह तेरह छपने को हैं। अजमेर का सस्ता साहित्य प्रेस आपकी और आपके मित्रों ही की उदारता का फल है। उसमें अथवा अन्यत्र कहीं इन अवशिष्ट पुस्तकों को छपने और प्रकाशन का प्रबन्ध कर दीजिए जिसमें मुझे मुनासिब उजरत भी मिल जाय और मेरी मृत्यु के पहले ये पुस्तकें छप भी जायं, अन्यथा इनका नाश अवश्यम्भावी है। बस, और अधिक लम्बा पत्र लिखकर मैं आपका वख्त नहीं बरबाद करना चाहता। 'कृपाकांक्षी ह० महावीरप्रसाद द्विवेदी