पृष्ठ:धर्मपुत्र.djvu/११३

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बानू की पलकें फैल गईं। उसने आँख उठाकर दिलीप की ओर देखा। होंठ फड़के। उनमें से एक अस्फुट ध्वनि निकली, 'दि-ली-प!" "दिलीप ही है बहिन, देख लो इसे आखिरी बार, और पहली बार। अरुणा ने बानू की आँख में आँख डालकर कहा। फिर पति को संकेत किया, “मार दो गोली।" लेकिन बानू उनके अंकपाश से निकलकर तेज़ी से झपटते हुए बन्दूक की नाल के आगे आ खड़ी हुई। उसने कहा, "खुदा के लिए भाईजान, बन्दूक मुझे दे दीजिए। उसे जो जी चाहे करने दीजिए।" और उसने एक तौर से बन्दूक उनके हाथ से छीन ली। दिलीप ने कहा, “आप चाहें तो घर से बाहर जा सकती हैं। हम लोग आपको चले जाने देंगे–मगर हम रंगमहल में ज़रूर आग लगाएँगे।" बानू ने एक बार दिलीप की ओर आँख उठाकर देखा। पर जवाब कुछ नहीं दिया। जवाब दिया डाक्टर ने, जैसे बानू की आत्मा में प्रविष्ट होकर उन्होंने बानू के मन में बात जान ली। उन्होंने कहा, "हम लोग बाहर नहीं जाएँगे। जाओ, तुम अपना काम करो। उन्होंने उसकी ओर से पीठ फेर ली और कहा, "अब हम तीनों के अतिरिक्त घर में दो आदमी केवल और हैं, एक बूढ़ी दासी, दूसरे रहमत मियाँ।" बानू अब साहस करके कदम बढ़ाकर दिलीप के सामने जा खड़ी हुई। उसने स्थिर- शान्त स्वर से कहा, “दिलीप, रहमत मियाँ और बुआ को तुम चला जाने दो। खुदा तुम्हारा भला करे।" लेकिन रहमत मियाँ और बूढ़ी दासी ने जाने से इन्कार कर दिया। उन्होंने कहा, “यह नहीं होगा। आपके कदमों में हम भी सदके।” रहमत ने एक करारी आवाज़ लगाकर दिलीप से कहा, “जाओ मियाँ, तुम अपना काम करो।" परन्तु दिलीप के निर्णय तक अधीर भीड़ ने सब्र नहीं किया। उसने रंगमहल में आग लगा दी। देखते-देखते आग ने फाटक को पकड़ लिया। और घर का आँगन धुएँ से भर गया। बानू और डाक्टर-दम्पती भीतर चले गए। दिलीप किंकर्तव्यविमूढ़ खड़ा रहा। आग ने रंगमहल को ग्रस लिया। दरवाजे और खिड़कियाँ धाँय-धाँय जलने लगीं। आग की लाल-लाल लपटें हवा में लहराने लगीं। सम्भवत: इसी समय पुलिस या मिलीटरी की एक टुकड़ी उधर जा निकली। यह देख आततातियों की भीड़ भाग गई, डाक्टर-दम्पती और बानू के साथ दिलीप भी आग में घिर गया। किन्तु आग अभी तक यहाँ भीतरी कक्ष में नहीं पहुँची थी। दिलीप अब एक क्षण को भी देर न कर भीतर की ओर लपका। उसने इधर-उधर देख एक बड़ी-सी रस्सी उठा पिछवाड़े की खिड़की में बाँधी और अरुणा के पास आकर कहा, "अम्माँ, ईश्वर के लिए इस खिड़की की राह तुम बाहर निकलो।" अरुणा ने कहा, “तुम्हें जो कुछ कहना हो, बानू से कहो। हमारा जो कुछ होगा, उन्हीं के साथ।" दिलीप ने बानू के पास जाकर कहा, “माँ को आप समझाइए-जो होना था हो चुका। कृपा कर आप इस खिड़की की राह निकल जाइए, आग अभी यहाँ नहीं पहुँची है।" किन्तु बानू ने इसका कोई जवाब नहीं दिया। दिलीप ने कहा, “आप लोग यदि मेरी बात नहीं सुनते हैं तो मैं भी यहीं जल मरूँगा।"